Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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[254]... चतुर्थ परिच्छेद
करती हुई 19. घट्टी पीसती हुई 20 तंदुलादि कूटती हुई. 21. तिलादि बाँटती हुई 22. रुई धुनती हुई 23. कपासिया निकालती हुई 24. चरखा घुमाती हुई 25 हाथ से रुई की पूनी बनाती हुई 26. षट्कायिक जीवयुक्त हाथवाली (छः काय जीवों का नाश करती हुई) 27. षट्काय जीवों को भूमि पर रखती हुई दान देनेवाली 28. पैर से उनको चांपती हुई 29. शरीर के अन्य अवयवों को उनका स्पर्श कराती हुई 30. आरंभपूर्वक छः काय जीवों का नाश करती हुई 31. दही आदि से लिप्त हाथ वाली 32. जूठे मुँहवाली 33. पेटी आदि में से निकालकर दान देती हुई 34. साधारण (बहुत होने पर भी अत्यल्प, दान देनेवाली हुई) 35. चोरी का माल (आहार) देती हुई 36. देव-देवी, अग्नि, बलि आदि के निमित्त बनाये हुए आहार में से अलग निकालकर देनेवाली 37. अपवादिक दान देनेवाली 38. हठपूर्वक दान देने वाली 39. जानते हुए भी अशुद्ध आहार देनेवाली अथवा 40 अनजान में अशुद्ध देनेवाले दाता के हाथ से आहार ग्रहण करने पर मुनि को दायक दोष लगता है।" इससे प्रवचन मालिन्य (शासन निंदा) अवर्णवाद, प्रद्वेष, जुगुप्सा, स्फोटन, रोग संक्रमण, जीव हिंसा, शंका, बन्ध आदि दोष उत्पन्न होते हैं। अतः मुनि को 'दायक दोष' से दूषित आहार का त्याग करना चाहिए 17 7. उन्मिश्र दोष मुनि को देने योग्य अचित्त, शुद्ध आहारादि वस्तु को सचित्त द्रव्य से या अशुद्ध आहार से मिश्रित करके देना 'उन्मिश्र दोष' है। 78 सचित मिश्र आहार ग्रहण करने पर जीव हिंसा होती हैं। अतः त्याज्य हैं
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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन अस्वस्थता में संयम - योग की वृद्धि के लिए और शरीर टिकाने के लिए विगई (घी-दूध आदि) ले सकते हैं 182
(10) छर्दित दोष - दूध, दही, घी, व्यञ्जन, आदि स्निग्ध एवं मधुर वस्तुओं के भूमि पर छींटे डालते हुए साधु-साध्वी को आहारादि देने पर 'छर्दित दोष' उत्पन्न होता है। यह देय पदार्थ के भेद से सचित्त, अचित्त और मिश्र भेद से तीन प्रकार से हैं। इनकी चतुर्भंगी गिनने पर 12 भेद एवं पृथ्वीकायादि एवं स्वस्थान- परस्थान के साथ गिनने पर 432 भेद होते हैं ।
8. अपरिणत दोष- पूर्ण अचित नहीं हुआ हो (अधपका), एसा अन्नादि आहार साधु-साध्वी को वहेराना 'अपरिणत दोष' है ।" यह दो प्रकार का है 00
(i) द्रव्य अपरिणत दूध आदि द्रव्यों का पूर्णरुप दही या 'मावा' के रुप में परिणत न होना 'द्रव्य अपरिणत' हैं।
(ii) भाव अपरिणत- आहारादि के समय दो साधु उपस्थित होने पर दाता के द्वारा 'मैं एक को यह आहारादि प्रदान करूंगा" - एसी भावना होने पर भी दोनों को या दूसरे को देना।- 'भाव अपरिणत' है ।
यह भ्रातृविषयक या स्वामीविषयक भेद से दो प्रकार का
होता हैं।
मुनि के द्वारा द्रव्य अपरिणत ग्रहण करने पर जीव दया का पालन नहीं होने से दोष लगता है और जीव अदत्त होने से अदत्तादान दोष लगता है, असंयम होता है। भाव अपरिणत ग्रहण करने पर कलहादि दोषों की संभावना रहेती है। अतः मुनि को अपरिणत आहारादि ग्रहण नहीं करना ।
(9) लिप्त दोष 1 - श्लेष्म, थूकादि अशुचि से भरे हुए अथवः सचित्तादि वस्तु से भरे हुए अथवा दूध, दहीं आदि से भरे हुए भाजन (बर्तन) या हाथ से साधु-साध्वी को आहारादि देने पर 'लिप्त दोष' लगता है।
इससे पूर्वकर्म - पश्चात्कर्मादि दोष एवं आहारादि के जमीन पर छिटे गिरने पर जीव हिंसा की संभावना होने से इस दोष से दूषित आहार त्याज्य हैं।
परन्तु छेवट्ठा संधयण होने से और साधुओं के उपधि, शय्या और आहार- ये तीनों शीत (ठंडा) होने से निरंतर आयंबिल करने से आहार का पाचन नहीं होने से अजीर्णादि दोष उत्पन्न होते हैं - इस कारण से साधु को छाछ आदि लेने की आज्ञा है एवं शारीरिक
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छर्दित दोष दुष्ट आहार ग्रहण करने पर मुनि को जीव हिंसा, आज्ञाभङ्ग, अनवस्थाप्य, मिध्यात्व, विराधनादि दोषों की प्राप्ति होती हैं। ग्रासैषणा दोष:
मुनि को गवेषणा और ग्रहणणैषणापूर्वक लाये हुए आहारादि ग्रहण करते समय जो दोष लगते हैं उन्हें 'ग्रासैषणा दोष' कहते हैं। 84 ग्रासैषणा दोष पांच होते हैं, यथा
1. संयोजना दोष- स्वाद के लोभ से पूडी, दूध, दही आदि में घी, शक्कर आदि मिलाना 'संयोजना दोष' है 185 आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. ने "जिन जिन वस्तुओं के मिलने से भोजनादि स्वादिष्ट बने, उन-उन वस्तुओं की प्राप्ति के लिए साधु के द्वारा घूमते रहना" - इसे भी संयोजना दोष कहते हैं। 86 द्रव्य संयोजना दोष दो प्रकार से निम्नानुसार है.
(1) बाह्य
(2) आन्तरिक
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गोचरी हेतु भ्रमण करते समय रास्ते में ही (उपाश्रय से बाहर) पुडी, दूध, दही आदि में घी, शक्करादि मिलाना।
(क) पात्र में पुडला आदि से घी-शक्करादि मिलाना । (ख) आहार के कवल में चुर्णादि मिलाना ।
(ग) मुख में प्रथम पुडलादि खाकर ऊपर गुड आदि खाना 187 संयोजन दोष दुष्ट आहार ग्रहण करके भोजन करने पर रसगृद्धि होती है। परिणामस्वरुप लोभ और माया कपट बढने से दीर्घकालिक दुःखों की उत्पत्ति होने से यह दोष त्याज्य है । तथापि ग्लान, दीक्षित, राजपुत्र रुप साधु, नवदीक्षित हेतु संयोजना पिण्ड ग्रहण करना कल्पता
वसति / उपाश्रय में आने के बाद पूडी आदि को घी, शक्करादि से मिलाकर स्वादिष्ट करना । आन्तरिक संयोजना दोष पुनः तीन प्रकार का है -
75. अ.रा. पृ. 3/59, 7/800
76.
अ.रा. पृ. 4/2500, 3/60
77.
अ.रा. पृ. 4/2501-2-3, 3/60
78. अ. रा. पृ. 2/878
79. अ. रा. पृ. 1/601, आचारांग-2/1/7
80.
अ. रा. पृ. 1/601, 3/67
81.
अ. रा. पृ. 3/67 एवं 6 / 659 साधु प्रतिक्रमण सार्थ पृ. 121
82. पिण्ड निर्युक्ति पराग- पृ. 281, 282
83. अ.रा. पृ. 3/1349, पञ्चाशक-13 विवरण
87. अ.रा. पृ. 7/120
88.
वही
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84.
अ. रा. पृ. 3/68
85.
अ. रा. पृ. 7/120
86. साधु प्रतिक्रमण सार्थ पृ. 121
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