Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
चतुर्थ परिच्छेद... [255] है। तथा जब साधु गोचरी में आया हुआ घी अकेला उपयोग करने में में यद्यपि उपयोग (पूर्ण सावधानी) रखने पर भी संपूर्णतया निर्दोष आहार समर्थ न हो और प्रतिष्ठापित करने पर चींटी आदि के भय से जीव हिंसा की प्राप्ति प्रायः दुर्लभ होती है। एसे समय में भाव से निर्दोषाहार ग्रहण होने से बृहत्तर प्रायश्चित की संभावना हो, तब अपवाद मार्ग से पुडलादि करने की भावना से भावित मुनि असिव (उपद्रव), ओमोयरिया (क्षुधापूर्ति को घी-शक्कर से मिलाकर उपयोग करने में दोष नहीं है।
न होने से खेद, आर्तध्यानादि होने की स्थिति में समभाव नहीं टिकने 2. प्रमाणातिरिक्त दोष - जितने आहार से उदरपूर्ति (क्षुधापूर्ति) हो पर), राजा (नेतादि) दुष्ट होने से, उपसर्ग करने पर, भय की स्थिति में, उससे अधिक आहार करना या धैर्य, बल, संयम और योगों को बाधा ग्लान होने पर, विकट रास्तों में, गिरिमार्ग (घाट, पहाडी रास्ते) आदि में पहुँचानेवाला बत्तीस (साधु के लिए) या अट्ठाईस (साध्वी के लिए) जब पूर्णतया शुद्धाहार की प्राप्ति न हो तब तीन भाग-शुद्ध-1 भाग कवल से अधिक आहार करना 'प्रमाणातिरिक्त दोष' हैं।"
अशुद्धाहार का उपयोग करें, वह न मिले तब आधा शुद्ध-आधा 3. अंगार दोष - मुनि के द्वारा स्वादिष्ट अन्न की या उनके देने वाले अशुद्ध, वह भी न मिले तब एक भाग शुद्ध-तीन भाग अशुद्ध (दाता) की प्रशंसा करते हुए भोजन करना 'अंगार दोष' है। यह दोष राग
अथवा शंकित हो तो आयंबिल या उपवास करेंअथवा वनस्पतिमिश्र रुपी अग्नि रुपी काष्ठों को जलाकर कोयले के समान कर डालता हैं। 2
आहार ग्रहण करें। इसमें भी नील-फूल (कांजी, पुष्प) आदि की 4. धूम्र दोष" - मुनि के द्वारा अनिष्ट स्वाद रहित अन्न की और दाता
जयणा करें। की निंदा करते हुए भोजन करना 'धूम्र दोष' है। यह दोष दो प्रकार का
इस प्रकार संपूर्ण गोचरचर्या का सार यही है कि, परमात्मा
जिनेश्वर देव ने मोक्षसाधना के हेतुभूत एसे मुनि के देह को टिकाने के (1) दव्य से - सामान्य रुप से द्रव्य की निंदा करने पर यह
लिए एसी पापरहित वृत्ति (आहारचर्या/गोचरी) साधुओं को दिखाई हैं। दोष अर्धदग्ध काष्ठवत् संयम को मलिन करता
89. अ.रा.पृ. 7/121, पिण्ड नियुक्ति-641 (2) भाव से
90. अ.रा.पृ. 7/121, पिण्ड नियुक्ति-640 - भाव से तीव्र द्वेषाग्नि पूर्वक निंदा करने पर जले
91. अ.रा.पृ. 5/478-79, आचारांग-2/1/1/9 हुए काष्ठ की तरह निंदारुपी धुएँ से संयम जीवन
92. अ.रा.पृ. 1/42, भगवती सूत्र-7/1 को क्लुषित करता है।
93. अ.रा.पृ. 4/2768 5. कारणाभाव दोष - ज्ञान, दर्शन, चारित्र, संयम पालन, ग्लानादि
94. अ.रा.पृ. 3/468, 469, 3/69, साधु प्रतिक्रमण सार्थ पृ. 122 के सेवा और क्षुधापूर्ति, आचार्यादि की सेवा, ईर्यासमिति की शुद्धि,
95. असिवे ओमोयरिए, रायदुद्वे भए च गेलणे । उद्दाए रोहएला, जयणा इमा संयमवृद्धि, प्राणरक्षा और स्वाध्याय-ध्यानादि - इन छ: कारणों से तत्थ कायव्व ।।551 साधु-साध्वी को भोजन करने की आवश्यकता है। उक्त कारणों के ओमं तिभागमद्वे, तिबाग आयंबिले च उत्थादी। निम्मिस्से मिस्सेया, परितणं अभाव में भोजन करने पर साधु-साध्वी को 'कारणाभाव दोष' लगता हैं ते य जा जतणा 1561 अत: कारण से भी निर्दोष आहार ग्रहण करना चाहिए।94
- अ.रा.पृ. 1/264, 265, निशिथ चूर्णि-10 उद्देश
96. अहो जिणेहि असावज्जा, मुक्ख साहणहेउस्स, वित्ती साहूण देसिया । त आहार ग्रहण कनक कारण एवाववक:-
साहु देहस्स धारणा | अभिधान राजेन्द्र कोश में आहार प्रकरण का उपसंहार करते
-दशवैकालिक-5/1/92 आचार्यश्रीने निशीथचूर्णि को उद्धृत करते हुए कहा है कि "मुनि जीवन
ધર્મરણ
સાધુ જીવનમાં આનંદનો અનુભવ કરાવનાર – સુધા-પિપાસા આદિ કષ્ટોમાં પણ પ્રસન્નતા પ્રગટાવનાર-ત્યાગ તપમાં પણ ઉત્તરોત્તર રૂચિ વધારનાર-ગવદિ પ્રત્યે સમર્પિતભાવ કે તેઓનાં વિનયાદિ કરાવનાર-શાસ્ત્રો પ્રત્યે પણ વફાદારી પ્રગટાવનાર અને યાવત્ ઘર્મની ખાતર પ્રાણની પણ અતિ અપાવનાર જો કોઈ હોય તો તે ધર્મરાગ છે કે જેના વિના સાધુ જીવનનું એક પણ અનુષ્ઠાન રૂચિકર અને નિર્જરાકારક ચતું નથી. તેમજ જગતના જીવો પ્રત્યે મૈચાદિ ભાવો પણ પ્રગટતાં નથી.
સાપેક્ષ યતિ ધર્મ એટલે નાના કુટુંબમાંથી આગળ વધીને સમસ્ત જીવોની साये औटुभिम भापy वन. मेडेन्द्रियथी भांडीने पंथेन्द्रिय सुधीना कोपा अपन भन-पयनકાયાથી કરણ-કરાવણ અને અનુમોદનરૂપે પણ દુઃખ ન થાય તેમ જીવવું તે સાધુધર્મ છે. તે ત્યારે જ બને કે જ્યારે અહિંસા પ્રત્યેનો ધર્મરાગ પ્રગટયો હોય !
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