Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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[240]... चतुर्थ परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
| अनगार साधु और श्रमणाचार |
भारतीय आचार-प्रणाली एवं विशेषकर जैन आचार-प्रणाली में आचार के संबंध में जो चिन्तन मनीषियों ने किया है; वह स्तुत्य है और आचरणीय भी। अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार संबंधी दार्शनिक एवं व्यवहारिक शब्दावली का अध्ययन करने से यह निश्चित ही पता चलता है कि, जैन धर्म की आचार-प्रधान एवं ज्ञान-प्रधान समग्र साधना आचारमय ही है। इसीलिए जैन धर्म संस्कृति का संदेशवाहक श्रमण' एक कठोर आचार की जीती जागती प्रतिमा माना गया है।
__आचार श्रमण के जीवन की आत्मा है। वह जीवन की अभिव्यक्ति है। आचार की ऊष्मा को जीवन में जीकर ही अनुभव किया जा सकता है, शब्दों से नहीं । आचार श्रमण के जीवन का सार्वजनिक सार्वकालिक, जीवन्त और जागृत शाश्वत स्वरुप है। इतना ही नहीं, अपितु वह प्रत्येक जागृत आत्मा की अनुभूति है। अनगार, श्रमण और साधु-इन तीन शब्दों का व्यवहार सर्वविरत अवस्था के साधकों के अर्थ में होता है, इसलिए इनके वाच्यार्थ और अभिप्राय को जानना आवश्यक है। जैन परम्परा में कार्य विभाजन की दृष्टि से आचार्य, उपाध्याय और साधु-श्रमणों के ये तीन वर्ग बताये गये हैं। आचार्य और उपाध्याय सामान्य श्रमणाचार के साथ-साथ अपने विशेष कर्तव्यों का निर्वहन भी करते हैं। सभी श्रमणों को 'अनगार', 'श्रमण' और 'साधु' शब्दों से जाना जाता है। आगे के कुछ अनुच्छेदों में इन शब्दों को अभिधान राजेन्द्र एवं अन्य सन्दर्भो के माध्यम से स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। अणगार (अनगार) :
अभिधान राजेन्द्र कोश में प्राकृत 'समण' शब्द के संस्कृत में अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने 'अणगार' (संस्कृत में छ: अर्थ हैं -1.शमन - रोग प्रशमन, औषधा4 2. समण - जो शत्रु'अनगार') शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है - अणगार, मुनि, मौनी, मित्र में समभावपूर्वक रहता हुआ दोनों के प्रति समान प्रवृत्ति व्यवहार साधु, प्रवजित, व्रती, श्रमण, क्षपक, यति-ये सभी शब्द एकार्थवाची रखे, उसे 'समण' कहते हैं। वह किसी भी जीव का घात स्वयं करता हैं। । 'अणगार' शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ दर्शाते हुए आचार्यश्रीने नहीं, दूसरों से कराता नहीं और करने वालों की अनुमोदना भी नहीं कहा है - द्रव्य से गृह घर, महल, हवेली आदि से रहित और भाव से करता।5। 3.समनस् - जो मन से सुंदर अर्थात् निदान-परिणाम लक्षण अनन्तानुबंधी आदि कषाय रहित/अल्पकषायी को 'अणगार' कहते हैं। रुप ताप रहित वर्तते हैं, उन्हें 'समनस कहते हैं। 4. श्रमण - साधु नंदीसूत्र में द्रव्य-भावगृह के परित्यागी को; भगवतीसूत्र में साधु को; 5. श्रवण - नक्षत्र का नाम 6.समनस् - मनः पर्यवज्ञान युक्त, भाव सूत्रकृताङ्ग में गृहरहित' को; आचारांग में गृहव्यापारत्यागी और पुत्र, सहित । मुनःि, दौहित्र, पुत्री, ज्ञाति, धात्री आदि परिवार रहित' को; और स्थानांग
सामान्य अर्थ में जो पाँच इन्द्रियों और छठे मन से श्रम में भिक्षु को 'अणगार' कहा है।
करते हैं, उसे 'श्रमण' कहते हैं। और जैनागम विषयक शब्दावली अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने 'मुनि' शब्द की व्याख्या में जो संसार के विषयों से उद्विग्न होकर (मोक्ष हेतु) तपस्या करते करते हुए कहा है - जो सर्वविरति को जानता है, विरतिवान् है, जगत हैं उन्हें 'श्रमण' कहते हैं। स्वजन-परजन, मान-अपमान त्रस-स्थावर की त्रैकालिक अवस्था के ज्ञाता, अतीन्द्रिय ज्ञाता, परोक्षज्ञ, कालिक इत्यादि में समान जो श्रद्धात्मा तप का आचरण करते हैं, उन्हें श्रमण विषयपूर्वक आत्मा (आत्म-स्वरुप) के ज्ञाता, सम्यक्त्व के ज्ञाता; उन्हें कहते हैं। सूत्रकृताङ्ग में कहा है कि सर्व प्रकार से अनर्थ के हेतुभूत 'मुनि' कहते हैं । जो यथार्थ उपयोग के द्वारा द्रव्यास्तिक-पर्यायास्तिक
1. अ.रा.प्र. 1/267 स्वभाव, गुण, पर्याय के निमित्त-उपादान, कारणकार्यभाव, उत्सर्ग
2. वही-1/268; उत्तराध्ययन-34 अध्ययन अपवाद पद्धतिपूर्वक जीव-अजीव लक्षण को/जगत् को जानता है, वह 3. अ.रा.पृ. 1/268 मुनि है । सावध व्यापार के त्यागी, साधु, अद्रोह-अध्यवसायवान्, 4. भगवती सूत्र 15/1 यथावस्थित संसार-स्वभाववेत्ता, तीर्थंकर, यति, सर्वज्ञ, महर्षि, मननशील, सूत्रकृत्रांग 2/1 वाचंयम, संयत, मोक्षमात्रनिष्ठ, तपस्वी, मौनी तत्त्वज्ञानी, राग-द्वेषवर्जित, 6. आचारांग 2/6/2 त्रिविधपरिषहसहनशील - जैनागमों में मुनि के ये सब पर्यायवाची 7. आचारांग 1/2/5 नाम वर्णित हैं। । पाइयलच्छीनाममाला में मुनि के पर्यायवाची नाम
8. स्थानांग 6/10 यति, तपस्वी, तापस, ऋषि, भिक्षु, मुनि, श्रमण बताये गये हैं।
9. अ.रा.पृ. 6/309 मुनि की स्वाभाविक विशेषता का वर्णन करते हुए अभिधान
10. अ.रा.पृ. 6/310; अष्टक-13/7
11. अ.रा.प्र. 6/311 राजेन्द्र कोश में कहा है कि 'वाणी के अनुच्चारण रुप मौन तो एकेन्द्रिय
12. पाइयलच्छीनाममाला, गाथा 32 में भी सुलभ है, परन्तु मन-वचन-काय के योगों के द्वारा
13. अ.रा.पृ. 6/310 पुद्गलस्कन्धजनित वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, संस्थानादि में इन्द्रियों की
14. अ.रा.प.7/410 चपलता/चंचलता पूर्वक प्रवृत्ति नहीं करने रुप मौन उत्तम है, जो मुनि
15. वही, स्थानांग 4/4; अनुयोगद्वार सूत्र, गाथा-3 को होता है।
16. अ.रा.पृ. 7/410; स्थानांग 4/4 श्रमण:
17. अ.रा.पृ. 7/412; चंद्रप्रज्ञप्ति, 10 पाहुड अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने 'समण' शब्द पर जैन
18. अ.रा.पृ. 7/412; कर्मग्रंथ 4; प्रश्नव्याकरणाङ्ग, 4 संवर द्वार मुनि के पर्यायवाची शब्द 'श्रमण' की नूतन व्याख्या की है।
19. अ.रा.पृ. 7/410
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