Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
चतुर्थ परिच्छेद... [239]
स्वरुप :
उपाध्याय भगवंत सूत्रार्थज्ञाता, रत्नत्रययुक्त, सूत्रवाचना निष्पादक और अध्ययन-अध्यापन स्वरुप/लक्षणयक्त होते हैं । वे स्वयं सूत्र-अर्थ का अध्ययन करके अध्ययन में स्थिर होते हैं एवं अन्य को सूत्र की वाचना प्रदान करके ऋणमुक्त होते हैं । वे सूत्रों के बार-बार अनुवर्तन करने से अत्यन्त अभ्यास के कारण यथावस्थित स्वरुप युक्त होने से आचार्य पद के योग्य होते हैं । गच्छान्तर से सूत्रों की उपसंपदा हेतु आये साधुओं को वाचनादान के कारण वे प्रतिच्छक कहलाते हैं। इससे वे मोह विजेता बनते हैं, प्रायश्चित (प्रायश्चित्त योग्य अकार्यो) से दूर रहते हैं, मन-वचन-काया के उपयोगपूर्वक विशुद्धिपूर्वक अनंतगमपर्याययुक्त दशाङ्गरुप श्रुतज्ञान सुनानेपूर्वक परम पद/मोक्ष के उपाय का चिन्तन करते हैं; अनुसरण करते है, ध्यान करते है। उपाध्याय भगवंत आचार्य भगवंत के सहयोगी होते है एवं मूर्ख शिष्य को भी पढा-लिखाकर होशियार करते है।
श्री उपाध्याय भगवंत शांत, प्रसन्नमुखवाले, विधिपूर्वक सभी को पढ़ाने में कुशल, आचार्य के वचनपालन में तत्पर, उत्तमकार्य करनेवाले, 25 गुणसहित, विशेषतः सत्य कार्यवान्, सत्यवचनयुक्त संधादि कार्यों में तत्पर एवं दृढप्रतिज्ञ होते हैं।
अभिधान राजेन्द्र कोश में उपाध्याय भगवंत के 11 अंग, 12 उपाङ्ग, चरणसित्तरी और करण सित्तरी इन 25 गुणों का वर्णन किया गया है।4 संबोध प्रकरण में उपाध्याय के गुणों की पच्चीस-पच्चीसी का भी वर्णन प्राप्त होता है, जो निम्नानुसार है।35
1. 11 अंग, 14 पूर्व को पढना-पढाना इति 25 गुण । 2. 11 अंग, 12 उपांग, | चरण सित्तरी, । करण सित्तरी = 25
गुण को धारण करना-कराना। 3. ज्ञान की 14 आशातना न करना; न कराना, सुवर्ण के 11 गुण
इति 25 गुण। 13 क्रियास्थान (का त्याग), 6 द्रव्य के ज्ञाता एवं 6 काय
रक्षक इति 25 गुण। 5. 14 गुण स्थान एवं 11 उपासक (श्रावक) प्रतिमा की प्ररुपणा
करना इति 25 गुण।
पाँच महाव्रत की 25 भावनाओं को धारण करना । (5x5 = 25) 7. कंदर्पादि 25 अशुभ भावना का त्याग करना। 8. प्रज्ञापनी (विनयवान शिष्य को उपदेश देने में उपयोगी) भाषा
के द्वारा पूजा के 8 भेद एवं पूजा के 17 भेद के ज्ञाता ।
(8 +7= 25)। 9. 4 प्रतिपत्ति भेद एवं पूजा के 21 भेद के ज्ञाता (4 + 21 = 25) 10. पाँचों इन्द्रियों के 23 विषयों को, राग (शुभ को) एवं द्वेष
(अशुभ को) (23 + 1 + 1 = 25) को दूर करना -इति 25 गुण । 11. मिथ्यात्व के 21 भेद की श्री संघ में 4 प्रकार से प्ररुपणा
करना (21 +4 = 25)-इति 25 गुण। 12. 14 भूतग्राम (जीवभेद) एवं उनको जानना, प्रारंभ करना,
पालन करना - इन तीनों के 8 भंग (भेद) एवं अंग-अग्र एवं
भावपूजा के 3 भेद के ज्ञाता (14+8+3=25) -इति 25 गुण । 13. 8 अनन्त, 8 पुद्गल परावर्त एवं 9 निदान (8 +8+9 = 25) 14. 9 तत्त्व, 9 क्षेत्र एवं 7 नय के ज्ञाता । (9+9+ 7 = 25) - इति
25 गुण।
15. 4 निक्षेप, 4 अनुयोग, 4 धर्मकथा, 4 विकथा त्याग, 4
दानादि धर्म, 5 करण के ज्ञाता इति 25 गुण । ___16.5 ज्ञान, 5 व्यवहार, 5 सम्यकत्त्व, 5 प्रवचन के अङ्ग, 5
प्रमाद के ज्ञाता इति 25 गुण। 17. 12 व्रत, 10 रुचि, 3 विधिवाद के ज्ञाता इति 25 गुण । 18. 3 हिंसा, 3 अहिंसा एवं कायोत्सर्ग के 19 दोष (3 +3+19)
के ज्ञाता इति 25 गुण। 19. 8 आत्मा, 8 प्रवचन माता, 8 मद का त्याग, 1 श्रद्धा के
स्वरुप के ज्ञाता इति 25 गुण । 20. श्रावक के 21 गुण, 4 वृत्ति प्रवर्तन के ज्ञाता - इति 25 गुण । 21. 3 अतत्त्व, 3 तत्त्व, 3 गारव, 3 शल्य, 6 लेश्या, 3 दंड,
4 करण के ज्ञाता इति 25 गुण अरिहंत (तीर्थंकर) पद की उपार्जना के 20 स्थान एवं 5
आचार के ज्ञाता - इति 25 गुण । 23. अरिहंत के 12, सिद्ध के 8.5 प्रकार की भक्ति के ज्ञाता -
इति 25 गुण। 24. सिद्ध के 15 भेद एवं 10 त्रिक के ज्ञाता - इति 25 गुण। 25. 16 आगार एवं प्रकार के संसारी जीव के स्वरुप के ज्ञाता -
इति 25 गुण। उपाध्याय पद की आराधना से लाभ :
उपाध्याय पद की आराधना, भक्ति एवं विनय से जीव उपाधि रहित होता है, स्वाध्याय में लयलीन/एकाग्र होता है; श्रुत (सूत्र संबंधी) ज्ञान की प्राप्ति होती है, भ्रम दूर होता है, आत्मा में शीतलता की अनुभूति होती है; श्रुतमद नष्ट होता है, अस्खलित वाणी प्राप्त होती है। ज्ञान की प्राप्ति से आत्मा अकार्य से निवृत्त होने से परंपरा से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
आचरण का अर्थ पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है। सामान्य भाषा में सदाचार और और उसके विपरीतार्थक दुराचार, अनाचार, कदाचार, आदि अनेक शब्दो का प्रचलन है। किन्तु धर्म और दर्शन के क्षेत्र में प्रयुक्त आचार शब्द से उपरोक्त विलोमार्थक शब्दों से निरपेक्ष मात्र श्रेष्ठ आचार ही अभीष्ट है, आचार शब्द से केवल मर्यादित और श्रेष्ठ आचार का ग्रहण किया जाता है। सभी दार्शनिकों ने आचरण को धर्म कहा है। मनुस्मृति में कहा गया है- "आचार: प्रथमो धर्म नृणां श्रेयस्करो महान्।" जैन आगमों में तो बल पूर्वक प्रतिपादित किया गया है कि चारित्र ही धर्म है। जैन सिद्धान्त के अनुसार वस्तु का स्वभाव वस्तु के स्वरुप के यथावत् श्रद्धान की रुचि और तदनुसार आचरित क्रिया तीनों का सन्तुलित समन्वय करते हुए यह प्रतिपादित किया गया है कि ये तीनों भिन्न भिन्न न होकर एक ही हैं। आचार्य, उपाध्याय और साधुओं के समग्र आचार को 'श्रमणाचार' शब्द से जाना जाता है।
6.
पाचन
31. अ.रा.पृ. 2/910-11 32. श्री नवपद देववंदन-उपाध्याय पद 33. श्री जिनेन्द्र पूजा संग्रह-पृ.8,9; 34. अ.रा.पृ. 2/911 35. संबोध प्रकरण-गाथा 166 से 184 36. श्री जिनेन्द्र पूजा संग्रह पृ. 7,8,9
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