Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
आगम के अनुसार शुक्ल सम्पूर्ण जागृत चेतना की उपलब्धि है। जब शुक्लध्यान सध जाता है, तब मनुष्य अव्यथ चेतना, अमूढचेतना, विवेकचेतना और व्युत्सर्ग चेतना का धनी बन जाता है। 2 इसीलिए शुक्ललेश्या का लक्षण बताया गया कि इसे लेश्या में मनुष्य प्रशान्त, प्रसन्नचित्त, जितेन्द्रिय, आत्मदमी, समितियों से समित, गुप्तियों से गुप्त, सराग या वीतरा होता है। 43
इस प्रकार इन तीन लेश्याओं का ध्यान शरीर में उच्च केन्द्रों पर किया जाता है, क्योंकि उच्च केन्द्रों का ध्यान हमें अपनी बुरी मनोवृत्तियों से ऊपर उठाता है। जब हम इन उच्च केन्द्रों के सम्पर्क में आते हैं, तब अन्त:प्रेरणा, बुद्धि और विवेक से हम सक्रिय बनते हैं। हमारे भीतर प्रेम, शान्ति, प्रसन्नता, शक्ति, नम्रता, दयालुता, भक्ति, अनतः प्रेरणा, विवेक, सर्वज्ञता और सर्वव्यापकता जैसे दैविक गुणों का प्रादुर्भाव एवं विकास होता है। 44
यद्यपि लेश्या ध्यान की अवधारणा आगमिक आधार पर स्थापित नहीं है। आचार्य महाप्रज्ञने प्रेक्षाध्यान के अन्य प्रयोगों के साथ लेश्याध्यान को भी विशेष प्रयोजन के साथ उसका अंग स्वीकृत किया है । जरुरी नहीं कि अमुक रंग अमुक केन्द्र पर ही किया जाए। कोई भी रंग किसी भी चैतन्य केन्द्र पर किया जा सकता है। अपेक्षित केवल उद्देश्य के निर्धारण का है। हम कौनसी मनोवृत्ति से मुक्त होना चाहते हैं ? क्योंकि मनोदशाओं के साथ रंगो का गहरा संबंध है।
रंगध्यान से तैजस शरीर की शक्ति जागृत होती है। जिसका तैजस शरीर जागृत होता है उसकी परिधि में आने पर व्यक्ति को पवित्रता, शांति और आनन्द का अनुभव होता है।
श्रावक सुदर्शन ने कायोत्सर्ग किया। उसके चारों ओर विद्युत का एसा शक्तिशाली वलय बन गया कि प्रतिदिन सात व्यक्तियों की हत्या करने वाले अर्जुनमाली की दानवीय शक्ति उस वलय को भेदने में अक्षम रही। सुदर्शन के शक्तिशाली और पवित्र आभामण्डल ने अर्जुनमाली के मन में परिवर्तन घटित किया और वह हत्यारे से संत बन गया। उसने महावीर पास प्रव्रज्या ग्रहण कर ली।
इन्द्रिभूति गौतम महावीर को पराजित करने के लिए आये थे, किन्तु जैसे ही उन्होंने महावीर के आभामण्डल की परिधि में प्रवेश किया, वे सब कुछ भूल गये और महावीर की पवित्रता से अभिभूत होकर उनका शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। जैन साहित्य बतलाता है - अर्हत् प्रवचन के समय समवसरण में जन्मना विरोधी जीव-जन्तु भी शत्रुता भूलकर शांति और प्रेम से प्रवचन सुनते हैं। आचार्य सोमदेवसूरिने अध्यात्म तरंगिणी में इसी सत्य का प्रतिपादन किया है कि तीर्थंकर के समवसरण में सांप और नेवला, भैंस और घोडा तथा हरिणी और व्याघ्र परस्पर क्रीडा करने लगते हैं। 45
ऐसा आश्चर्य इसलिए घटित होता है कि महापुरुषों का पवित्र आभावलय उन्हें शांत और उपशमित कर देता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि रंगो का ध्यान व्यक्तित्व को बदलने का एक महत्त्वपूर्ण उपाय हैं।
विशुद्धिकेन्द्र पर नीले रंग, दर्शनकेन्द्र पर अरुण रंग, ज्ञानकेन्द्र (या चाक्षुषकेन्द्र) पर पीले रंग का और ज्योतिकेन्द्र पर श्वेत रंग का ध्यान किया जाता है। इन केन्द्रों पर ध्यान करने के साथ जो भावना की जाती है, वह इस प्रकार है
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केन्द्र
आनन्द केन्द्र विशुद्ध केन्द्र
दर्शन केन्द्र
ज्ञान (चाक्षुष) केन्द्र
ज्योति केन्द्र
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रंग
हरा रंग
नीला रंग
अरुण रंग
पीला रंग
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श्वेत रंग
लेश्याध्यान : निष्पत्ति
प्रेक्षाध्यान साहित्य में आचार्य महाप्रज्ञने लेश्याध्यान की निष्पत्ति बतलाई है - जो लेश्याध्यान में उतरता वह निम्न उपलब्धियों से जुडता है
• चित्त की प्रसन्नता
चतुर्थ परिच्छेद... [235]
भावना / अनुभव भावधारा की निर्मलता वासनाओं का अनुशासन
अन्तर्दृष्टि का जागरण
धार्मिकता के लक्षणों का प्रकटीकरण
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चारित्र की शुद्धि - संकल्प शक्ति का जागरण
• चैतन्य का जागरण - स्वस्थ और सुन्दर व्यवहार, प्रशस्त
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आनन्द का जागरण
ज्ञानतंतु की सक्रियता (जागृति) परमशांति-क्रोध, आवेश, आवेग, उत्तेजनाओं की शांति
जीवन, प्रशस्त मौत
कर्मतंत्र और भावतंत्र का शोधन
पदार्थ - प्रतिबद्धता से मुक्ति
तेजोलेश्या से परिवर्तन का प्रारंभ, अपूर्व आनन्द, मानसिक दुर्बलता समा
L
• पद्मलेश्या से मस्तिष्क और नाडीतंत्र का बल, चित्त की प्रसन्नता, जितेन्द्रियता
● शुक्ललेश्या से - आत्म-साक्षात्कार
इस प्रकार संक्षेप यह कहा जा सकता है कि लेश्या का सम्बन्ध पर्यावरण और जीवात्मा के मध्य भावों के विद्युत् चुम्बकीय परिदृश्य से है, जिसे केवलज्ञान दृष्टि से तीर्थंकरोने देखा है।
जैसे जैसे साधक विचारों से निर्मल होता जाता है और गुणस्थानक अवस्थाओं में उत्तरोत्तर आगे बढता जाता वैसे वैसे उसकी लेश्या में विशुद्धि बढती जाती है। यह विशुद्धि मुनि अवस्था में ही पूर्णता को प्राप्त हो सकती है, अतः आगे के शीर्षकों में क्रमप्राप्त मुनियों के आचार से सम्बन्धित विवेचन एवं अनुशीलन प्रस्तुत किया जा रहा है।
42. Alex Jones, Seven Mansions of Colour, p. 41-42 43. Edgar Cayce, Auras, p. 14; 3. ठाणं 4/70; उत्तराध्ययन 34/31,32
44. Alex Jones, Seven Mansions of Colour, p. 61; 45. अध्यात्मतरंगिणी, 7
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