Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
लेश्या
श्या सिद्धान्त की प्राचीनता:
ऐतिहासिक दृष्टि से 'लेश्या' शब्द का प्रयोग अति प्राचीन है। आचारांग (ई.सा. पूर्व 5वीं शती) में 'अबहिल्लेस्से' शब्द की उपस्थिति यह सूचित करती है कि, लेश्या की अवधारणा महावीर के समकालीन है । पुनः उत्तराध्ययन सूत्र जो की सभी आगमों में अतिप्राचीन माना जाता है, में लेश्याओं के संबंध में एक पूरा अध्ययन उपलब्ध होना यही सूचित करता है कि लेश्या की अवधारणा एक प्राचीन अवधारणा है। इसके अलावा सूत्रकृताङ्ग सूत्र में 'सुविशुद्धलेसे' तथा औपपातिक सूत्र में 'अपडिलेस्स' शब्दों का उल्लेख मिलता है।'
जैन साहित्य में लेश्या सिद्धान्त का विवेचन अनेक दृष्टियों से किया गया है। उत्तराध्ययन सूत्र में नाम, वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श, परिणाम, लक्षण, स्थान, स्थिति, गति और आयु - इन ग्यारह द्वारों (विचार बिन्दुओं) के द्वारा लेश्या संबंधी विचार किया गया है। भगव सूत्र एवं प्रज्ञापना सूत्र में परिणाम (द्रव्य), वर्ण, रस, गन्ध, शुद्ध, अप्रशस्त, संक्लिष्ट, उष्ण, गति, परिणाम (भाव), प्रदेश, वर्गणा, अवगाहना, स्थान एवं अल्प - बहुत्व- इन पंद्रह द्वारों से लेश्या का विचार किया गया है।
अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने जैनागमों के आधार पर निम्नाङ्कित 26 द्वारों के आधार पर लेश्या की विवेचना की है - (1) निक्षेप (2) संख्या (3) नारको में लेश्या (4) असुरकुमारादि देवों में लेश्या (5) कृष्णादि लेश्यावान जीवों की ऋद्धि का अल्प - बहुत्व (6) लेश्यावन्त का अवधिज्ञान विषयक क्षेत्र (7) लेश्या का स्थान (8) लेश्या - प्राप्ति हेतु परिणाम (9) वर्ण (10) विशेष वर्ण (11) स्थिति का अल्प बहुत्व (12) वर्ण स्थान (13) रस (14) गन्ध (15) शुद्धि (16) स्पर्श (17) गति (18) परिणाम संख्या (19) त्रिस्थानकावतार (20) प्रदेश (21) स्थान (22) स्थितिकाल (23) लेश्या-स्थान का अल्पबहुत्व (24) आयुः (25) परस्पर परिणामनिरुपण ( 26 ) मनुष्यादिगत लेश्या - संख्यानिरुपण ।4
इसके पश्चात् दिगम्बर परंपरा में भी अकलंकने तत्त्वार्थ राजवार्तिक में लेश्या की विवेचना में निम्न सोलह अनुयोग की चर्चा की है - (1) निर्देश (2) वर्ण (3) परिणाम (4) संक्रम (5) कर्म (6) लक्षण (7) गति (8) स्वामित्व (9) संख्या (10) साधना (11) क्षेत्र (12) स्पर्शन (13) काल (14) अन्तर (15) भाव और (16) अल्प बहुत्व | S अकलंक के पश्चात् गोम्मटसार जीवकाण्ड में भी लेश्या की विवेचना में उपर्युक्त 16 ही अधिकारों का उल्लेख किया गया है। "
आधुनिक युग में जैन दर्शन के लेश्या सिद्धान्त को आधुनिक विज्ञान के परिप्रक्ष्य में आचार्य महाप्रज्ञने व्याख्यायित किया है। उन्होंने आधुनिक व्यक्ति मनोविज्ञान के साथ-साथ आभा मण्डल, रंग-मनोविज्ञान, रंग-चिकित्सा आदि अवधारणाओं का अपने ग्रंथ 'आभामण्डल' में विस्तार से वर्णन किया है। डो. शान्ता जैनने 'लेश्या को मनोवैज्ञानिक अध्ययन' नामक अपने शोध ग्रन्थ में लेश्या का सैद्धान्तिक पक्ष, मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में लेश्या रंगो की मनोवैज्ञानिक प्रस्तुति, लेश्या और आभामण्डल, व्यक्तित्व और लेश्या, संभव है व्यक्तित्व बदलाव
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और लेश्या ध्यान, रंग ध्यान और लेश्या आदि लेश्या के विभिन्न आयामों पर गंभीरता से विचार किया है।"
लेश्या की परिभाषा:
'लेश्या' का सिद्धान्त जैन दर्शन का स्वतन्त्र प्रतितन्त्र प्रतिपादित सिद्धान्त है। जैन दर्शनने लेश्या का जीव के साथ अनादि संबंध माना है। जीव जब तक कर्ममुक्त नहीं होता, आत्मा में लेश्या का परिणमन होता रहता है। लेश्या को कर्मबन्ध का सहायक तत्त्व कहा है। संपूर्ण सृष्टि का चक्र जन्म-मरण, सुख-दुःख, वैयक्तिक भिन्नतायें सभी कर्मतत्त्व से जुडी है परन्तु कर्म भी आत्मा के साथे बिना लेश्या के नहीं जुडता । जीव और पुद्गल के संयोग में लेश्या सेतुबन्ध का काम करती है।
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यदि मुझे अपने शब्दो में कहना हो तो 'कषायसापेक्ष आत्म परिणति को लेश्या कहते है, इसमें क्रमशः विशुद्धतर लेश्या होती है।" अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने 'लेश्या' का वर्णन करते हुए कहा है- जो आत्मा को कर्मों से लिप्त करती है या जिसके द्वारा आत्मा कर्मों से लिप्त होती है अर्थात् बन्धन में आती है, वह लेश्या है । लेश्या कृष्णादि द्रव्य साचिव्यजनित आत्म-परिणाम है, जीव को अध्यवसाय है, अन्तःकरण की वृत्ति है। भगवती सूत्र में कहा है कि, "कृष्णादि द्रव्य वर्गणाओं की सन्निधि से होनेवाला जीव का परिणाम लेश्या है। 10 आत्मा के साथ कर्मपुद्गलों को श्लिष्ट करनेवाली प्रवृत्ति लेश्या है। ये योग के परिणाम विशेष है।" स्थानांग में कहा है कि, लेश्या कर्मनिर्जरारुप है। 12 उत्तराध्ययन की बृहद्वृत्ति में लेश्या का अर्थ आण्विक आभा, कान्ति, प्रभा या छाया किया गया है। 13 यापनीयाचार्य शिवार्यने भगवती आराधना में छाया पुद्गल से प्रभावित जीव के मनोभावों/परिणामों को लेश्या माना है। 14 इसी आधार पर आचार्य देवेन्द्र मुनि शास्त्रीने लेश्या को एक प्रकार का पौद्गलिक पर्यावरण माना है जो मनोवृत्तियों को निर्धारित करता है ।15 षट्खण्डागम में कहा है कि, "जो आत्मा और कर्मो का बंध करानेवाली है, वह लेश्या है। ''16 पंचसंग्रहकार जिसके द्वारा जीव पुण्य-पाप से अपने को लिप्त
जैन विद्या के आयाम - खण्ड-6 पृ. 390 उत्तराध्ययन सूत्र - 34/2
अ. रा.पू. 6/680, प्रज्ञापना सूत्र - 17/411
अ. रा.पू. 6/696
तत्त्वार्थ राजवार्तिक- पृ. 238
गोम्मटसार जीवकाण्ड - गाथा - 491-92
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चतुर्थ परिच्छेद... [229]
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-6 पृ. 390
अ. रा. पृ. 3/395, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश- पृ.3/422
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10. भगवती सूत्र - 1/1 प्र. 53 की टीका
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वही 1/2 प्र. 98 की टीका
स्थानांग -1 /51 की टीका
उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति पत्र 650
भगवती आराधना भा. 2 गाथा 109
श्री पुष्कर मुनि अभिनन्दन ग्रन्थ खण्ड 5 पृ. 4-61
अ. रा.पू. 6/675, प्रज्ञापना 17 पद, आचारांग 1/615;1/8/5
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16. लेश्या और मनोविज्ञान प्राथमिकी पू. 7
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