Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
लेश्या के रस: - कृष्णादि लेश्या के रस निम्नानुसार है।
1. कृष्ण लेश्या - नीम या कटुतुम्बी जैसा अति कटुक | 2. नील लेश्या चित्रकमूल, सोंठ, मरिच, पीपल के चूर्ण जैसा तिक्त ।
3. कापोत लेश्या - कच्चे बेर या आम के कच्चे फल जैसा कषैला । 4. तेजोलेश्या पके आम या कपित्थ से अनन्तगुना मधुर
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आम्ल ।
5. पद्म लेश्या खर्जूर रस, द्राक्षासव, चोयासव (सुगंधी द्रव्य का रस) से भी अनन्तगुना आम्ल, मधुर ।
6. शुक्ल लेश्या - खण्ड शर्करा / मिश्री से भी अत्यन्त मधुर । लेश्याओं का स्पर्श :
कृष्णादि तीन अप्रशस्त लेश्याओं का स्पर्श करौत (करवत), गाय की जीभ या शाक के पत्ते से भी अधिक कर्कश (कठोर) और तेजो आदि तीन अप्रशस्त लेश्याओं का स्पर्श शिरीष पुष्य या मक्खन से भी अतिशय सुकुमार(सुकोमल) होता है। 30
लेश्याओं के परिणाम :
मन के परिणाम अप्रशस्त, अशुभ, अशुद्ध और प्रशस्त, शुभ, शुद्ध दोनों तरह के होते हैं। निमित्त और उपादान दोनों का पारस्परिक संबंध है । लेश्या के निमित्त को द्रव्य लेश्या और मन के परिणाम / अध्यवसाय को भाव लेश्या कहा गया है। भाव लेश्या आत्मा का परिणाम है। यह जघन्य-मध्यम-उत्कृष्ट; मन्द- अनेक भेदोंवाला है। इस अपेक्षा से भाव लेश्या के अनेक भेद होते है परन्तु संक्षेप में 1. कृष्ण लेश्या
2. नील लेश्या
अप्रशस्ततम, अशुभतम, अशुद्धतम अप्रशस्ततर, अशुभतर, अशुद्धतर अप्रशस्त, अशुभ, अशुद्ध
3. कापोत लेश्या 4. तेजोलेश्या
प्रशस्त, शुभ, शुद्ध
5. पद्म लेश्या
प्रशस्ततर, शुभतर, शुद्धतर प्रशस्ततम, शुभतम, शुद्धतम परिणाम / भावयुक्त होती है। 31
अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने इसे निम्नाङ्कित द्दष्टान्त द्वय से समजाया है।
6. शुक्ल लेश्या
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श्याओं को समजने हेतु जंबुवृक्ष का द्दष्टान्तः
किसी जंगल में भूख से व्याकुल पुरुष घूम रहे थे। उन्होंने एक जगह पक्के और रसवाले जांबून का एक पेड देखकर अपनी क्षुधा मिटाने हेतु आपस में विचार-विमर्श किया। तब उनमें से प्रथम पुरुष बोला - इस पेड पर चढना मुश्किल है अतः तीक्ष्ण कुल्हाडे से इसे जड से काटकर नीचे गिराना चाहिए: तब दूसरा पुरुष बोला- इतने बडे पेड का बजाय इसकी एक बडी शाखा / डाली काट दीजिये, तब तीसरा पुरुष बोला- इतनी बडी शाखा के बजाय एक प्रशाखा ( टहनी) काट दीजिये; तब चोथा पुरुष बोला- टहनी के बजाय जांबून के गुच्छे तोड दीजिये, तब पाँचवा पुरुष बोला- गुच्छे के बजाय खाने योग्य फलों को ही अपनी आवश्यकतानुसार तोड लेना चाहिये; तब छट्ठवाँ
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चतुर्थ परिच्छेद... [231]
पुरुष बोला जितने फलों की हमें आवश्यकता है उतने पके फल तो हमें इस वृक्ष के नीचे ही गिरे हुए मिल जायेंगे। अतः उन्हीं से हमारी क्षुधा मिटाकर प्राणों का निर्वाह करना चाहिए।
ये छः पुरुष क्रमशः कृष्ण नील, कपोत, तेजो, पद्म और शुक्ल लेश्या युक्त जीवों के अध्यवसाय में परिणामों की संक्लिष्टता और कोमलता के प्रतीक है।
लेश्या को समजने हेतु ग्रामघातक का दृष्टान्त :
कुछ पराक्रमी चोर किसी गाँव को लूटने हेतु जा रहे थे तब रास्ते में उन्होंने आपस में इस प्रकार विचार-विमर्श किया
(1) प्रथम चोर पुरुष-स्त्री - बालक- पशु आदि जो भी अपनी नजर में आ जाय उन सबको मारकर धन ले लेना। यह अतिक्रूर अध्यवसाय / परिणाम कृष्णलेश्यारुप है ।
(2) द्वितीय चोर - पशु निरपराधी है अतः सिर्फ मनुष्यों का ही घात करना । - यह मध्यम क्रूर अध्यवसाय नील लेश्यारुप है।
(3) तृतीय चोर - स्त्री हत्या अत्यन्त निन्दनीय है अतः सिर्फ पुरुषों का ही घात करना। यह मंदक्रूर अध्यवसाय कापोतलेश्यारूप है।
(4) चतुर्थ चोर- सभी पुरुषों का नहि, सिर्फ शस्त्रधारियों का ही वध करना । यह अत्यल्प कोमल परिणाम तेजोलेश्यारूप है।
(5) पञ्चम चोर शस्त्रधारी में भी जो अपने साथ युद्ध करें उन्हें ही मारना। यह मध्यम कोमल परिणाम पद्मलेश्यारुप है।
(6) छठवाँ चोर किसी को बिना मारे सिर्फ धन ही ले लेनायह अतिकोमल परिणाम शुक्ल लेश्यारुप है। लेश्याओं में गति :
कृष्णादि प्रथम तीन अशुभ- अप्रशस्त लेश्याओं तीव्र संक्लिष्ट अध्यवसाय जीव को अशुभ नरक-तिर्यंच गति में ले जाते है और तेजो आदि तीन शुभ-प्रशस्त लेश्याओं के तीव्र असंक्लिष्ट परिणाम जीव को शुभ देव या मनुष्य गति में ले जाते हैं। 1. कृष्ण लेश्या:
हिंसादि पञ्चास्रव में प्रमत्त, तीव्र क्रोध, तीव्र वैर, लडाकू स्वभाव, धर्महीनता, दयाहीनता, दुष्ट स्वभाव, अवशी, स्वच्छन्दता, विवेकहीनता, कलाचातुर्यरहित, पञ्चेन्द्रिय विषयों में लम्पट, मानी, मायावी, आलसी, भीरु, स्वगोत्री या स्वकलत्रादि को मारने की इच्छा, प्रचण्ड कलहकारी, दुराग्रह, उपदेशावमानन, दुर्मुख, निर्दयता, क्लेश, ताप, असंतोषवाला जीव कृष्ण लेश्यायुक्त होता है। 2. नील लेश्या :
अतिनिद्रा, परवञ्चन में अतिदक्षता, धन-धान्य संग्रह में अति लालची, विषयासक्त, मतिहीन, मानी, विवेकहीन, मन्द, आलसी, कायर, प्रचुर, माया प्रपंच में संलग्न, लोभान्ध, भौतिक सुखेच्छु, आहारादि संज्ञा में अत्यासक्त, मूर्ख, भीरु, अतिगृद्धि, माया, तृष्णा, अनृत भाषण, अतिचपलतायुक्त जीव नील लेश्यावाला होता है। 3. कापोत लेश्या:
दूसरों के ऊपर रोष करना, परनिन्दा, दूषण बहुलता, अतिशोक,
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अ. रा.पू. 6/684 686
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अ.रा. पृ. 6/687-88
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