Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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[232]... चतुर्थ परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन अतिशय, ईर्ष्या, अन्य में अविश्वास, दूसरों को अपने समान नहीं 1. असभ्य व्यक्ति के आभामण्ल से निकलने वाली विकिरणें धुंधलमानना, स्तुति होने पर अति संतुष्ट, हानि-वृद्धि के ज्ञान से रहित, पोली, स्लेटी, मिश्रित-नीली धुंधली नारंगी औरंगी और भूली कर्तव्याकर्तव्य विवेकरहित, मात्सर्य, पैशुन्य, परपरभव, आत्म प्रशंसा, लाल रंग की होती है। ये किरणें अस्त-व्यस्त और धब्बेदार परपरिवाद, जीवननैराश्य, प्रशंसक को धन देना, युद्ध मरणोद्यम इत्यादि दिखती हैं। कापोत लेश्यायुक्त जीव के लक्षण है।
2. सभ्य व्यक्ति के आभामण्डल में उच्च-स्तरीय किरणें होती 4. तेजो लेश्या :
हैं। उसके आभामण्डल में पीला रंग, शुद्ध लाल और साफ तेजो लेश्या - कर्तव्याकर्तव्यज्ञ, सेव्यासेव्य भेदज्ञ, दयादानरत, नीला रंग अधिक होता है। संवेगात्मक स्थिति में ओरा काला मृदुस्वभावी, ज्ञानी, दृढता, मित्रता, दयालुता, सत्यवदिता, दानशीलत्व, तथा लाल रंग क्रोध के समय विकिरत होता है। भय की स्वकार्य-पटुता, सर्वधर्म समदर्शिता आदि तेजोलेश्यावाले जीव के अवस्था में धुंधला स्लेटी रंग होता है। भक्ति के समय नीला लक्षण है।
रंग निकलता हैं। 5. पद्म लेश्या :
3. अतिमानव का ओरा शानदार तथा सूर्यास्त के रंग जैसा होता त्यागी, भद्र, शुद्ध, आरौिद्र ध्यान मुक्त और धर्म शुक्ल है। उसके सिर के चारों ओर पीले रंग की तेज किरणों का ध्यानयुक्त उत्तम कार्यकर्ता, क्षमाशील, सत्यवाक्, सात्त्विकदान, पाण्डित्य, वलय होता है। गुरु-देव पूजन में रुचि इत्यादि पद्मलेश्यायुक्त जीव के लक्षण हैं।
जैन दर्शन में लेश्या के आधार पर आभामण्डल के प्रकार बन 6. शुक्ल लेश्या :
जाते हैं, क्योंकि लेश्या के छ: वर्ण निर्धारित हैं और इन्हीं वर्णो के साथ शुक्ल लेश्या-पक्षपातरहित, निदानरहित, सर्वजीव समदर्शी, मनुष्य के विचार और भाव बनते हैं, चरित्र निर्मित होता है। समव्यवहारी, राग-द्वेष रहित, नेह रहित, निर्वैर, वीतरागता, शत्रु के भी
वर्ण और भाव परस्पर प्रभावक तत्त्व है। वर्ण की विशदता दोषों पर दृष्टि न देना, निन्दा नहीं करना, पाप कार्यों में उदासीनता, और अविशदता के आधार पर भावों की प्रशस्तता और अप्रशस्तता श्रेयोमार्गरुचि, प्रशांत चित्त, जितेन्द्रियता, समितिगुप्तियुक्त, उपशान्त आदि निर्मित होती है। हम भावधारा को साक्षात् देख नहीं पाते, इसलिए शुक्ल लेश्यायुक्त जीव के लक्षण है।35
व्यक्ति के आभामण्डल में उभरनेवाले रंगों को देखकर भावों को आधुनिक विचार और लेश्यासिद्धान्त :
जानते हैं। 'व्यक्तित्व का वर्गीकरण एवं आचार्य महाप्रभ (लेश्या के वर्ण व्यक्तित्व की गुणात्मक पहचान :आधार पर)' लेख में श्री बी.पी. गौड ने अनेक सन्दर्भो को उद्धत करते
आभामण्डल में काले रंग (कृष्ण) की प्रधानता हो तो मानना हुए लेश्याओं का सम्बन्ध रंगो से जोडा है। डो. गौड के अनुसार लेश्या चाहिए कि व्यक्ति का दृष्टिकोण सम्यक् नहीं है, आकांक्षा प्रबल है, दो प्रकार की धाराओं में चलती है - भाव की धारा एवं रंग की धारा । प्रमाद प्रचुर है, कषाय का आवेग प्रबल और प्रवृत्ति अशुभ है, मनइन दोनों का योग ही लेश्या का सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के अनुसार। वचन और काया का संयम नहींहै, इन्द्रियों पर विजय प्राप्त नहीं है, लेश्या एक प्रकार का पौद्गलिक आवरण है।.....वर्तमान समय में आचार्य प्रकृति क्षुद्र है, बिना विचारे काम करता है, क्रूर है और हिंसा में श्रीमहाप्रज्ञने लेश्या के आधार पर व्यक्तित्व वर्गीकरण प्रस्तुत कर एक रस लेता हैं। क्रान्तिकारी विचार और सिद्धान्त जगत् को प्रस्तुत किया है। अपने गहन
आभामण्डल में नील वर्ण की प्रधानता हो तो माना जा अध्ययन और चिन्तन के आधार पर उन्होंने लेश्याओं को दो मुख्य भागों सकता है - व्यक्ति में ईर्ष्या, कदाग्रह, माया निर्लज्जता, आसक्ति, में बाँटा है - 1. भामण्डल (Halo) और 2. आभामण्डल (Aura) प्रद्वेष, शठता, प्रमाद, यशलोलुपता, सुख को गवेषणा, प्रकृति की 1. भामण्डल (Halo):
क्षुद्रता, बिना विचारे काम करना, अतपस्विता, अविद्या, हिंसा में प्रवृत्ति देवी, देवताओं, अवतारी पुरुषों, सन्त और सिद्ध पुरुषों के - इस प्रकार की भावधारा और प्रवृत्ति हैं। शरीर से निकलनेवाली लेश्याओं (रश्मियों) का वलय जो इन पुरुषों के
आभामण्डल में कापोत वर्ण की प्रधानता हो तो माना शरीर के चारों ओर दैदीप्यमान होता है, इस वलय को भामण्डल कहते जा सकता है - व्यक्ति में वाणी की वक्रता, आचरण की वक्रता,
प्रवंचना, अपने दोषों को छिपाने की प्रवृत्ति, मखौल करना, दुष्ट 2. आभामण्डल (Halo):
वचन बोलना, चोरी करना, मात्सर्य, मिथ्यादृष्टि-इस प्रकार की भावधारा .....प्रत्येक पदार्थ चाहे वह सजीव हो या निर्जीव हो, के
और प्रवृत्ति हैं। चारों ओर रश्मियों का एक वलय होता है जिसको आभामण्डल कहते
आभामण्डल में रक्त वर्ण की प्रधानता हो तो माना जा सकता हैं। यह वलय या पुंज सूक्ष्म तन्तुओं के जाल जैसा या रुई के सूक्ष्म
है- व्यक्ति नम्र व्यवहार करनेवाला, अचपल, ऋजु, कुतूहल करनेवाला, तन्तुओं के व्यूह के जैसा कवच के रुप में फैला होता है। वास्तव में यह
विनयी, जितेन्द्रिय, मानसिक समाधि वाला, तपस्वी, धर्म में दृढ पुंज पदार्थ से या शरीर से विकरित होनेवाली विद्युत चुम्बकीय उर्जा या आस्था रखने वाला, पापभीरु और मुक्ति की गवेषणा करनेवाला है। तरंग का रुप है।
आभामण्डल में पीतवर्ण की प्रधानता हो तो माना जा सकता श्री गौड ने मुमुक्षु डो. शान्ता जैन (लेश्या और मनोविज्ञान, पृ.
है कि वह व्यक्ति अल्प क्रोध, मान, माया और लोभवाला, प्रशान्त 113) को उद्धृत करते हुए यह स्पष्ट किया है विकरित होनेवाली विद्युत
चित्तवाला, समाधिस्थ, अल्पभाषी, जितेन्द्रिय और आत्म संयम करने का एक संस्थान बनता है इसे हम आभामण्डल कहते हैं।
वाला है। इसी बात को ओर स्पष्ट करते हुए डॉ. शान्ता जैनने आगे
35. अ.रा.पृ. 6/689-90; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - पृ. 3/422-23 कहा है
36. देखे प्रेक्षाध्यान एवं योग, पृ. 30 (जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनू)
पहा
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