Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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[96]... तृतीय परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन जिस सूत्र के विषय में जिसके द्वारा श्रुत के अनुसार जीवाजीवादि अर्थ की प्रस्तुति की जाय, उसे व्यवस्थित किया जाय, उसे 'नियुक्ति' कहते हैं। पज्ज - पद्य (त्रि.) 5/210
छन्दोबद्ध वाक्य को 'पद्य' कहते हैं। पद्य तीन प्रकार के हैं(1) सम - श्लोक के चारों पादों में समान (संख्या में) अक्षरों का होना। (2) अर्धसम - श्लोक के प्रथम और तृतीय पाद और द्वितीय या चतुर्थ पाद में गुरु लघु आदिपूर्वक समान अक्षर होना।
(3) विषम - सभी पादों में विषम अक्षर होना पय - पद (न.) 5/502
जिसके द्वारा अर्थ का ज्ञान होता है, उसे 'पद' कहते हैं। पदार्थ के विषय में पहचान (ज्ञान प्राप्त) करने में परस्पर सहकारी रुप से स्थित, पदान्तरवर्ती वर्णो से पराङ्मुख अन्योन्य वर्णो की अपेक्षा का मिलाप (संहति) 'पद' कहलाता हैं। वाक्यार्थ में वाक्य में अन्तर्भावित ऐसे ही पदों की संहति को 'वाक्य' कहते हैं।
पद के नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव आदि चार भेद हैं। और उनके अनेक प्रभेद हैं। इसमें भाव पद के नौवें मातृक पद नाम के 'ग्रथित' नामक भेद में गद्य, पद्य, गेय और चौर्ण पद समाविष्ट है। अन्य प्रकार से पद के (1) नाम (2) निपात (3) उपसर्ग (4) आख्यात
और (5) मिश्र - ये पाँच प्रकार हैं। सामान्यतः जहाँ शब्द के अर्थ की परिसमाप्ति हो, उसे 'पद' कहते हैं परंतु द्वादशांगी में तो तथाविध आम्नाय का अभाव होने से वहाँ एक पद को 'पद' माना हैं। जैसे - आचारांग के 18,000 पद। पाठ - पाठ (पु.) 5/824
ग्रहण शिक्षा, आसेवन शिक्षा, जिससे अभिधेय विषय को पढा जाय/प्रकट किया जाय, उसे 'पाठ' कहते हैं। प्रबन्ध - प्रबन्ध (पुं.) 5/435
उपांगो में कथित वृत्तान्त (प्रपञ्च कथा) परक ग्रंथ को 'प्रबन्ध' कहते हैं। पोत्थग - पुस्तक (न.) 5/1121
जिस पर वर्णादि लिखा जाता है ऐसा ताडपत्रादि का छेद करके पन्ने रुप बनाकर उसे संपुट रुप में ग्रहण करना - 'पुस्तक' कहलाता हैं। (अ.रा.भा. 5 'पोत्थकम्म' शब्द) पुस्तक पाँच प्रकार के होते हैं(1) गंडी
दीर्घ, बहुत पन्नोंवाला, समचोरस पुस्तक 'गंडी पुस्तक' कहलाता हैं। (2) कच्छपी - अंत में पतला, मध्य में मोटा, थोडे या ज्यादा पन्नोंवाला पुस्तक 'कच्छपी पुस्तक' हैं।
(पृ. 3/186, 5/122) (3) मुष्टि
चार अंगुल लम्बा या गोलाकार पुस्तक 'मुष्टि पुस्तक' कहलाता हैं। (4) संपुट
दो फलकवाला पुस्तक 'संपुट' कहलाता है। (5) छेवाडी - लम्बी, छोटी, या थोडे या अधिक पत्रोंवाली पुस्तक 'छेवाडी' कहलाती हैं।
(अ.रा.भा. 3/1362, 5/1122) यहाँ पर जिनसिद्धांत संबंधी पुस्तकलेखन का फल एवं जिनसिद्धांत के पुस्तकारूढ होने का काल, स्थानादि का वर्णन किया गया है। पोराण - पुराण (त्रि.) 5/1123
जैन साहित्य में तीर्थंकरभासित अर्थ के विषय में गणधरनिबद्ध ग्रंथविशेष को 'पुराण' कहते हैं। बन्धण - बन्धन (न.) 5/1191
साहित्यविधा में मयूर-बन्ध आदि काव्य रचना के लिए 'बन्धन' शब्द का प्रयोग होता हैं।
अन्यत्र कर्मबन्धन, रज्जु-लोहशृंखलादि से बन्धन के विषय में भी 'बन्धन' शब्द प्रयुक्त हैं। बंभी - ब्राह्मी (स्त्री.) 5/1284
जैनों के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की सुमंगला नामक पत्नी से उत्पन्न पुत्री का नाम ब्राह्मी था। जैनागमों के अनुसार परमात्मा ऋषभदेव ने अपने गृहस्थजीवन में अपनी पुत्री ब्राह्मी को संस्कृतादि लिपि का जो अक्षरज्ञान दिया, उसे ब्राह्मी लिपि कहते हैं। ब्राह्मी लिपि की लेखनविधि के अठारह प्रकार हैं - 1. ब्राह्मी
2. यवनालिका 3. दोष ऊरिका 4. बारोटरी
5. खरडाडिका
6. महाराजिका 1. उच्चस्तरिका
9. भोगवजत्रा 10. वेदन्तिका
11. निह्निका
12अंकलिपि
15. आदर्श लिपि
14. गान्धर्वलिपि 13. गणितलिपि 16. माहेश्वरलिपि
17. दामिलिपि
18. बोलंति लिपि भइरव - भैरव (न.)5/1334 Jain Education international नाटक, काव्य आदि में वर्णित भयानक रस को 'भैरव' रस कहते हैं। शास्त्रीय संगीत में 'भैरव' नामक 'राग' (तर्ज) हैं।
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