Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चट्टसाला चट्टशाला (स्त्री.) 3 / 1111
चट्ट = विद्यार्थी, छोटे बालकों की अध्ययनशाला को 'चट्टशाला' कहते हैं । चाउव्वण - चातुर्वर्ण (न.) 3/1171 चातुर्वण दो प्रकार से हैं
(1) लौकिक क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र
( 2 ) लोकोत्तर - श्रमण- श्रमणी - श्रावक-श्राविकारुप चतुर्विध संघ
चित्तसभा - चित्रसभा (स्त्री.) 3 / 1183
चित्रकार्ययुक्त मण्डप को 'चित्रसभा' कहते हैं।
चिया चिता (स्त्री) 3 / 1187
'शव' के अग्नि संस्कार के लिए जो ईन्धनयुक्त अग्नि होती है उसे 'चिता' कहते हैं । चूलाकम्म- चूडाकर्मन् (न.) 3/1025; चोलअ चोलग (न.) 3/1337 बालकों का मुण्डन संस्कार 'चूडाकर्म' या 'चोलग' कहलाता हैं।
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चोल्लग - चोल्लक (पुं.) 3 / 1338
छेयारिय - छेकार्चा (पु.) 3 / 1361
परिपाटी भोजन और ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के मित्र का कल्याण भोजन 'चोल्लक' कहलाता हैं।
जणोवयार जनोपचार (पुं.) 4/1381
शिल्प का उपदेश देनेवाले (सीखानेवाले) आचार्य को 'छेकाचार्य' कहते हैं।
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स्वजनादि की लौकिक पूजा - सत्कार को 'जनोपचार' कहते हैं ।
2. राजस
3. तामस
जाग - याग (पुं.) 4/1446
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जज्ञ - यज्ञ (पुं.) 4/1389
यहाँ याग, विष्णु, नागादि की पूजा, प्रतिदिन अपने अपने इष्टदेवता की पूजा, धूपसहित यज्ञ, धूपरहित दानादि क्रियारुप यज्ञ आदि के लिए 'यज्ञ' शब्द प्रयुक्त है। यहाँ यज्ञ के तीन भेद बताये गये हैं
1. सात्त्विक
फल की आकांक्षा रहित, सविधि, मन की समाधि के लिये जो ( सद्ध्यान रुप) यज्ञ किया जाय, उसे सात्त्विक यज्ञ कहते हैं।
फल की प्राप्ति के लिये, अथवा कपटपूर्वक किया गया यज्ञ राजस यज्ञ हैं।
विधिरहित, असृष्ट अन्न, मंत्ररहित, दक्षिणारहित और श्रद्धारहित यज्ञ तामसयज्ञ है । अन्य प्रकार से यज्ञ के द्रव्य यज्ञ, तप यज्ञ, योग यज्ञ और ज्ञान यज्ञ ये चार प्रकार हैं। यहीं पर अध्यापनरुप ब्रह्मयज्ञ, तर्पणरुप पितृयज्ञ, होमरुप देवयज्ञ, बलिरुप भूतयज्ञ और अतिथिपूजारुप नृयज्ञ ( मनुष्य यज्ञ) - ये ( मीमांसक मत में) गृहस्थ के करने योग्य पाँच यज्ञ हैं, यह भी बताया गया हैं।
जाणसाला - यानशाला - 4/1550
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देवपूजा और अश्वमेघादि लौकिक यज्ञ को 'याग' कहते हैं ।
जहाँ वाहन बनाये जाते हैं उसे 'यानशाला' कहते हैं।
गरधम्म - नगर धर्म (पुं.) 4/1793
जाय - जात (न.) 4 / 1451
समूह, जन्म, प्रकार, व्यक्ति, वस्तु, उत्पन्न, विभिन्न देशोत्पन्न विनेय अनुग्रह के लिए एकार्थवाची शब्द और उत्पत्ति, धार्मिक व्यक्तियों के समूह को 'जात' कहते हैं।
यहाँ इसके नाम, स्थापन, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन छः निक्षेपों का वर्णन किया गया है। 1
जायकम्म - जातकर्मन् (न.) 4/1451
प्रसव कर्म, नाल छेदनादि कर्म, मन्त्रित सर्षप, प्राशनादि कर्म तथा अशुचि निवारण एवं जन्म संबन्धी संस्कार को 'जातकर्म' कहते
णट्ट - नाट्य (न.) 4/1799
हैं।
जत्ता - यात्रा (स्त्री.) 4/1390; जिणजत्ता जिनयात्रा (स्त्री.) 4/1492
यान में जाना या तप-नियम- संयोगादि में प्रवृत्ति, देवदर्शनोत्सव, रथयात्रा, अष्टाह्निका महोत्सव, तीर्थयात्रा, चैत्यपरिपाटी, चैत्ययात्रा, राजा का गमन, देशान्तरगमन, गमन क्रिया, यापन और उपाय को 'जत्ता' कहते हैं। और अर्हदुत्सव के निमित्त रथयात्रा को 'जिनयात्रा' कहते है।
नगरवासी नागरिकों के आचार-नियमादि को 'नगर धर्म' कहते हैं।
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तृतीय परिच्छेद ... [101]
नृत्य, हाथ-पैर - मुख की भाव-भंगिमा, ताण्डव नृत्य, गीतरहित नृत्य को 'नट्ट' कहते हैं।
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