Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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[148]... चतुर्थ परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
आचार का वर्गीकरण :
अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार का निक्षेप की दृष्टि से चिन्तन करते हुए कहा गया है- आचारस्य तु चतुर्धा निक्षेपः । स चायं नामाचारः स्थापनाचारो द्रव्याचारो भावाचारश्च ।36 अर्थात् निक्षेप की दृष्टि से आचार चार प्रकार का है - 1. नामाचार 2. स्थापनाचार 3. द्रव्याचार और 4. भावाचार । नामन, धावन, वासन, शिक्षापन आदि द्रव्याचार है7 और दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य को भावाचार कहा गया
आचार के मुख्य पाँच भेद :
जैनागमों में मुख्य रुप से आचरणीय ज्ञानादि पाँच वस्तुएँ बतायी गयी हैं : दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार - ये पाँच प्रकार का भावाचार है। इसलिए संक्षेप में भावाचार के पाँच भेदों का उल्लेख करते हुए अभिधान राजेन्द्र कोश में कहा है
दंसण नाण चरित्ते, तव आयारे य वीरियायारे।
एसो भावायारो, पंचविहो होई नायव्वो । अभिधान राजेन्द्र कोश में इन पाँच आचारों के भेद-प्रभेदों का विस्तृत वर्णन आचार्यश्री ने किया है। जिसे हमने यथा संक्षेपविस्तारपूर्वक पूरे शोध प्रबंध में यथास्थान वर्णित किया है।
सामान्य भाषा में सदाचार और उसके विपरीतार्थक दुराचार, अनाचार, कदाचार, आदि अनेक शब्दों का प्रचलन है। किन्तु धर्म और दर्शन के क्षेत्र में प्रयुक्त आचार शब्द से उपरोक्त विलोमार्थक शब्दों से निरपेक्ष मात्र श्रेष्ठ आचार ही अभीष्ट है, आचार शब्द से केवल मर्यादित
और श्रेष्ठ आचरण का ग्रहण किया जाता है। सभी दार्शनिकों ने आचरण को धर्म कहा है। मनुस्मृति में कहा गया हैं -"आचारः प्रथमो धर्मः नृणां श्रेयस्करो महान् ।" जैन आगमों में तो बल पूर्वक प्रतिपादित किया गया है कि चारित्र ही धर्म है। जैन सिद्धान्त के अनुसार वस्तु का स्वभाव, वस्तु के स्वरुप के यथावत् श्रद्धान की रुचि और तदनुसार आचरित क्रिया तीनों का सन्तुलित समन्वय करते हुए यह प्रतिपादित किया गया है कि ये तीनों भिन्न भिन्न न होकर एक ही हैं। जैनागमों में धर्म के स्वरुप पर विशद चर्चा उपलब्ध होती है। आगामी शीर्षक में संक्षेप में जैन धर्म और उसके उद्देश्य एवं लक्ष्य के विषय में किंचित् प्रस्तुत किया जा रहा है। 36. नामण धावण वासण, सिक्खावण सुकरणाविरोहीणि ।
दव्वाणि जाणि लोए, दव्वायारं वियाणाहि ॥ अ.रा.पृ. 2/368; आचारांग वृत्ति 37. पंचविहे आयारे पण्णत्ते, तं जहा-णाणायारे, दंसणायारे चरित्तायारे तवायारे वीरियायारे ।।
अ.रा.पृ. 2/369; नंदीसूत्र, सूत्र 32; स्थानांग सूत्र-5 वाँ ठाणां 38. दुविहे आयारे पणत्ते, तं जहा-णाणायारे चेव नोणाणायारे चेव । नाणायारे दुविहे पणत्ते, तं जहा दंसणायारे चैव नोदंसणायारे चेव । नोदंसणायारे दुविहे पणत्ते,
तं जहा-चरित्तायारे चेव नो चरित्तायारे चेवा (अ.रा. पृ. 2/368; दशवैकालिक सूत्र सटीक,अ-3) नोचरित्तायारे दुविहे पणत्ते, तं जहा-तवायारे चेव वीरियायारे
चेव । - अ.रा.पृ. 2/369; स्थानांग सटीक, ठाणां 2 39. अ.रा. पृ. 2/368; आचारांग नियुक्ति, गाथा 181 40. ज्ञानं श्रुतज्ञानं तद्विषय आचारः। श्रुतज्ञानविषये कालध्ययनविनयाध्यापनाऽऽदिरुपे व्यवहारे। - अ.रा.पृ. 4/1994 41. अ.रा.पृ. 2/369; स्थानांग सूत्र सटीक, ठाणां-2
(सदाचार लोकापवादभीरुत्वं,दीनाभ्युद्धरणाऽऽदरः। कृतज्ञता सुदाक्षिण्यं,सदाचारः प्रकीर्तितः ॥ सर्वत्र निंदासंत्यागो,वर्णवादश्च साधुषु। आपद्यदैन्यमत्यन्तं,तद्वत्संपदिनम्रता । प्रस्तावे मितभाषित्व-मविसंवादनंतथा। प्रतिपन्नक्रियाचेति,कुलधर्मानुपालनम्।B॥ असद्व्यपरित्यागः,स्थानेचैतत्क्रिया सदा। प्रधानकार्ये निर्बन्धः, प्रमादस्य विवर्जनम्।।
लोकाचारानुवृत्तिश्व,सर्वत्रौचित्यपालनम्। प्रवृत्तिहितेनेति, प्राणैः कण्ठगतैरपि।5॥
__ - अ.रा.पृ. 7/337
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