Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
View full book text
________________
[190]... चतुर्थ परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चौदह जीवस्थानों के नामों का उल्लेख है; वे ही नाम गुणस्थानों क्षय, क्षयोपशम आदि अवस्था से होनेवाले परिणामों का स्थान के हैं। ये चौदह जीवस्थान कर्मो के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम अथवा परमपद अर्थात् मोक्षरुपी प्रासाद के शिखर पर चढने हेतु आदि भावाभावजनित अवस्थाओं से बनते हैं तथा परिणाम और परिणामी मिथ्यादृष्टि से अयोगी केवली पर्यन्त के जीवों का स्वरुप (दर्शाने) में अभेदोपचार होने से जीवस्थान को गुणस्थान कहते हैं।।। षट्खंडागम- वाली सोपान पंक्ति (निःश्रेणी)। उन उन परिणामों से युक्त जीव धवला टीका के अनुसार जीवगुणों में रहता है, अतः 'जीवसमास' उस उस गुणस्थानवाले कहे जाते हैं। शब्द का प्रयोग देखने में आता है और इसका कारण स्पष्ट करते
विकास की ओर अग्रसर आत्मा यद्यपि उस प्रकार की संख्यातीत हुए लिखा है कि कर्म के उदय से उत्पन्न गुण औदयिक और कर्म आध्यात्मिक भूमिकाओं का अनुभव करती है; लेकिन उन सब का के उपशम से उत्पन्न गुण औपशमिक है, कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न संक्षेप में वर्गीकरण करके चौदह विभाग किये गये हैं। वे चौदह गुण क्षायोपशमिक है, कर्म के क्षय से उत्पन्न गुण क्षायिक है और गुणस्थान कहलाते हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में उनके नाम निम्नानुसार कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम के बिना स्वभावतः होने
है - वाला गुण पारिणामिक है। इन गुणों के सहचारी होने से जीवसमास (1) मिथ्याष्टि
(2) सास्वादन सम्यष्टि शब्द का प्रयोग देखने में आता है तथा संक्षेप और ओघ, सामान्य (3) सम्यग्-मिथ्याष्टि (मिश्र) (4) अविरत सम्यगष्टि और जीवसमास-ये चारों गुणस्थान के पर्यवाची नाम है।5। (5) देशविरत
(6) प्रमतसंयत इस प्रकार हम देखते हैं कि आगमों में यद्यपि 'गुणस्थान' (7) अप्रमतसंयत
(8) निवृत्ति (अपूर्वकरण) शब्द का प्रयोग नहीं है, लेकिन उत्तरवर्ती आचार्यों द्वारा जिस आशय (9) अनिवृत्ति बादर संपराय (10)सूक्ष्म संपराय की अभिव्यक्ति करने के लिए 'गुणस्थान' शब्द का उपयोग किया (11) उपशान्तकषाय वीतराग-छद्मस्थ (12)क्षीण-कषाय वीतरागगया है, उसके लिए वहाँ 'जीवस्थान' शब्द रखा है। आगमोत्तरकालीन (13) सयोगी केवली
छद्मस्थ साहित्य में 'गुणस्थान' शब्द के अधिक प्रचलित होने का कारण (14) अयोगी केवली यह है कि औदयिक, औपशमिक, क्षयोपशमिक और क्षायिक गुण
गोम्म्टसार एवं बृहद्रव्यसंग्रह में 'सास्वादन' गुणस्थान का तो जीव में कर्म की अवस्थाओं से संबंधित हैं, किन्तु पारिणामिक नाम 'सासादन' और 'सासन' दिया है। भाव एक एसा गुण है, जिसमें किसी अन्य संयोग की अपेक्षा नहीं 1 मिथ्यात्व गणस्थ
1. मिथ्यात्व गुणस्थान :होती16, वह स्वाभाविक है। अतः इस गुण की प्रमुखता के कारण
अभिधान राजेन्द्र कोश में मिथ्यात्व का परिचय देते हुए अभेदोपचार से जीव को भी गुण कहा और गुण की मुख्यता से
आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने लिखा है - दर्शनमोहनीय पश्चाद्वर्ती साहित्य में संभतः 'गुणस्थान' शब्द मुख्य एवं जीवस्थान'
कर्म के भेद मिथ्यात्व की प्रबलतम स्थिति यहाँ होने से इस शब्द गौण हो गया। कारण कुछ भी रहा हो, लेकिन आगमों और
गुणस्थान का नामकरण किया गया है। मिथ्यात्व मोहनीय के उदय पश्चाद्वर्ती साहित्य में शाब्दिक भेद होने पर भी गुणस्थान व जीवस्थान
से जिस जीव की दृष्टि (श्रद्धा, प्रतिपत्ति, विश्वास) मिथ्या (विपरीत) शब्द का आशय एक ही है। इसमें किसी प्रकार की मत-भिन्नता
हो जाती है, उसे मिथ्यादृष्टि कहते हैं। यद्यपि मिथ्यावादी की नहीं है। अर्थात् 'गुणस्थान' शब्द आगमों में उल्लिखित 'जीवस्थान'
दृष्टि विपरीत है। फिर भी वह किसी अंश में यथार्थ भी होती शब्द का पर्याय है।
है। क्योंकि मिथ्यात्वी जीव भी मनुष्य, पशु-पक्षी आदि रुप में गुणस्थान शब्द का परिभाषा एवं अथ:- जीव को जानता और मानता है। वह अहिंसा सत्य आदि गुणों
'गुणस्थान' शब्द का अर्थ गुणों (आत्मशक्तियों) का स्थान। को उत्तम मानता है। यह उसका गुण है और इसी गुण की अपेक्षा अभिधान राजेन्द्र कोश में 'गुणस्थान' शब्द की परिभाषा देते हुए से मिथ्यादृष्टि जीव के स्वरुप विशेष को मिथ्यात्व गुणस्थान कहते आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने लिखा है - "तत्र गुणा हैं। इसका अपर नाम मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है। ज्ञानदर्शनचारित्रस्मा जीवस्वभावविशेषाः, स्थानं पुनरत्र तेषा
मिथ्यात्व को भी गुणस्थान मानने का कारण यह है कि शुद्धिविशुद्धिप्रकर्षापकर्षकृतः स्वरुपभेदः, तिष्ठन्त्यस्मिन् गुणा 14. भूयग्गाम - भूतग्राम । भूतानि जीवास्तेषां ग्रामः समूहो भूतग्रामः । जीवसमूहे इति कृत्वा गुणानां स्थानं गुणस्थानम्।" इसे ही और स्पष्ट किया
चउद्दस भूयग्गामा पण्णत्ता। तं गया है -
जहा-सुहुमा अपज्जत्तया.....त्वसंज्ञिनः इति । अथवा चतुर्दशभूतग्रामाः चतुर्दश इहोत्तरोत्तरगुणारुढानां जन्तुनामसंख्येयगुण निर्जरा
गुणस्थानकानि।
गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा 3 पर सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका टीका, पृ. 82 भाक्त्वम्, उत्तरोत्तरगुणाश्च यथाक्रमं अविशुद्धयपकर्ष-विशुद्धि
16. अ.रा.पृ. 6/1500, 6/615: 3/907 प्रकर्षरुपाः सन्तो गुणस्थानकान्युच्यते ।
17. अ.रा.पृ. 5/1599, 1600 अथवा
18. अ.रा.प. 3/913,914 परमपदप्रासादशिखरारोहणसोपानकल्पे मिथ्यादृष्टया- 19. गुणा ज्ञानोदयस्तेषां स्थानं नाम स्वरुपभित् । दिका - योगिकेवलिपर्यवसाने जीवानां स्वस्प -भेदो। ।
शुद्धयशुद्धिप्रकर्षापकर्षोत्थात्र प्रकीर्त्यते ॥1133।। - द्रव्यलोकप्रकाश, सर्ग ___अर्थात् ज्ञान-दर्शन-चारित्ररुप जीवस्वभाव-विशेष, आत्मा
___3/1133
20. अ.रा.प. 3/914, गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा 9, 10 के विकास की क्रमिक अवस्था अथवा आत्मगुणों या आत्मिक
21. गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा 9; बृहद् द्रव्यसंग्रह, गाथा 130 की टीका शक्तियों के आविर्भाव की, उनके शुद्ध कार्यरुप में परिणत होते
22. अ.रा.पृ. 6/272, 274, 277; गोम्मटसार, जीवकांड, गाथा 15 व टीका; रहने की तरतम भावापन्न अवस्था में क्रमश: शुद्ध और विकास
सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका पृ. 91; द्रव्यलोकप्रकाश, सर्ग 3, श्लोक 1134 करती हुई आत्म-परिणति का स्थान अथवा कर्मों की उदय, उपशम,
से 1140; गुणस्थान क्रमारोह गाथा 6
15.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org