Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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[208]... चतुर्थ परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
औदयिक भाव होता ही है। और औपशमिक भाव के बिना धर्म की शरुआत नहीं होती। छद्मस्थ संसारियों के क्षायोपशमिक भाव होता है। और केवली, क्षायिक सम्यक्त्वी, क्षायिक चारित्री के क्षायिक भाव होते हैं। उपसंहार:
गिरकर नीचे के गुणस्थान में रखा जाता है और यदि फिर सम्हलता प्रस्तुत प्रकरण में 'गुणस्थान' के विषय में अनुशीलन किया
है तो अपक श्रेणी पर आरू ढ होकर बारहवें क्षीणकाषायवीतरागछद्मस्थ गया है। यहाँ 'गुण' शब्द भाव का वाचक हैं। जैन आगम में जीव
अवस्था को पार कर के सयोग केवली नामक तेरहवें गुणस्थान में के पाँच भाव बताये गये हैं। इन्ही भावों का अंशतः आविर्भाव ।
पहुँचता हैं। और आयु समाप्त होने पर 14 वें गुणस्थान से होता हुआ तिरोभाव और पूर्णतः प्रकटीभाव 14 गुणस्थानों द्वारा स्पष्ट किया गया
मुक्त हो जाता हैं। है। इसमें पाँचवाँ गुणस्थान देशविरति (असंयतासंयत) मनुष्य और
ये गुणस्थान मोक्षमार्गी मनुष्यों में कर्म एवं कषायप्रभेदों के तिर्यञ्च, दोनों के हो सकता है। किन्तु प्रमत्तसंयत नामक षष्ठ गुणस्थान
उतार-चढाव के कारण होते हैं। छठे गुणस्थान से आगे की सभी से लेकर आगे की स्थिति केवल मनुष्ययोनि में ही सम्भव हो पाती
अवस्थाएं मात्र संयमी साधुओं में सम्भव हो पाती हैं। जैसे जैसे है। आठवें गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक के गुणस्थानों को दो
उत्कृष्टता आती है वैसे वैसे उसके गुणस्थान-क्रमारोहण होता जाता श्रेणियों में रखा जाता है- उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी। अपूर्वकरण
है और कषायों का रस कम होता जाता हैं। क्रमशः कषाय के कम (अष्टम), अनिवृत्तिकरण (नवम), सूक्ष्मसांपराय (दशम) और
होने से कर्मों के बंध, उदय, उदीरणा और सत्ता भी घटती जाती उपशान्तकाषाय वीतराग छद्मस्थ (एकादश), इन्हें उपशमश्रेणी में रखा
है और अन्त में जीव कर्मरहित, अकषायी, अलेशी होता हुआ चरम जाता है; और अपूर्वकरण (अष्टम), अनिवृत्तिकरण (नवम), सूक्ष्मसांपण्य
अयोगी केवली गुणस्थान प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त होता है। आगे के (दशम) और क्षीणकाषाय वीतराग छद्मस्थ (द्वादश), इन्हें क्षपकश्रेणी
शीर्षक में कर्म, कषायों एवं लेश्या के बारे में संक्षिप्त अनुशीलन में रखा जाता है। उपशमश्रेणी पर आरुढ जीव एक बार नियम से प्रस्तुत किया जा रहा हैं।
श्री अरिहन्त-तीर्थंकरदेवों की आज्ञा
1. विश्व के सूक्ष्मतव्य इत्यादि (वस्तु-पदार्थो) को दर्शाने वाली होने से उत्तम है।
2. सर्वदा स्थायी होने से अनादि अनन्त है।
3. सभी जीवों को अनाशक तथा हितकारिणी होने से 'भूतहिता' है।
4.
सत्य वस्तु को प्रगट करनेवाली होने से 'भूतभावना रुप' है।
5. कल्पवृक्ष और चिन्तामणि रत से भी अधिक फल देनेवाली होने से 'अमूल्य है।
6.
अपरिमित अर्थ को कहनेवाली होने से 'अमिता' है।
7. अन्य प्रवचनों की आज्ञा द्वारा अजेय होने से 'अजिता' है।
8. महान अर्थ वाली होने से 'महार्था' है।
9. महा सामर्थ्य सम्पन्न होने से 'महानुभावा' है।
10. विश्व के समस्त वव्यादिक का प्रतिपादन करनेवाली होने से 'महाविषया' है।
श्री अरिहन्त-तीर्थकर भगवन्तों की इन्हीं दस आज्ञाओं को श्रुतकेवली व श्रीगणधर भगवन्तों ने श्री द्वादशांगी में गूंथा है।
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