Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
चतुर्थ परिच्छेद... [221] सत्ता में समस्त उत्तप्रकृतियों का अस्तित्व रहता है जिनकी और चारित्रमोहनीय व दर्शनमोहनीय की तीन उत्तरप्रकृतियाँ उपर्युक्त संख्या एक सौ अठावन है। उदय में केवल एक सौ बाईस प्रकृतियाँ नियम के अपवाद है। रहती हैं क्योंकि इस अवस्था में पंद्रह बन्धन तथा पाँच संघातन- 8. उपशमन - कर्म की जिस अवस्था में उदय अथवा उदीरणा नाम कर्म की ये बीस प्रकृतियाँ अलग से नहीं गिनी गई है अपितु
संभव नहीं होती उसे उपशमन कहते हैं। इस अवस्था मेंउद्धर्तना, पाँच शरीरों में ही उनका समावेश कर दिया गया है। साथ ही वर्ण,
अपवर्तना और संक्रमण की संभावना का अभाव नहीं होता । जिस गन्ध, रस तथा स्पर्श इन चार पिण्डप्रकृतियों की बीस उत्तरप्रकृतियों
प्रकार राख से आवृत अग्नि उस अवस्था में रहती हुई अपना कार्यविशेष के स्थान पर केवल चार ही प्रकृतियाँ गिनी गई हैं। इस प्रकार कुल
नहीं करती किन्तु आवरण हटते ही पुनः प्रज्वलित होकर अपना कार्य एक सौ अठावन प्रकृतियों में से नाम कर्म की छत्तीस (बीस और
करने को तैयार हो जाती है उसी प्रकार उपशमन अवस्था में रहा सोलह) प्रकृतियाँ कम कर देने पर एक सौ बाईस प्रकृतियाँ शेष रह
हुआ कर्म उस अवस्था के समाप्त होते ही अपना कार्य प्रारम्भ कर जाती है जो उदय में आती हैं। उदीरणा में भी ये ही प्रकृतियाँ रहती
देता है अर्थात् उदय में आकर फल प्रदान करना शुरु कर देता है। है क्योंकि जिस प्रकृति में उदय की योग्यता रहती है उसी की उदीरणा
9.निधत्ति :- कर्म की वह अवस्था निधत्ति कहलाती है जिसमें होती है। बन्धनावस्था में केवल एक सौ बीस प्रकृतियों का ही अस्तित्व
उदीरणा और संक्रमण का सर्वथा अभाव रहता है। इस अवस्था में माना गया है। सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय कर्मो का बन्ध
उद्धर्तना और अपवर्तना की संभावना नहीं होती। अलग से न होकर मिथ्यात्व-मोहनीय कर्म के रुप में ही होता है
10. निकाचन - कर्म की उस अवस्था का नाम निकाचन है क्योंकि (कर्मजन्य) सम्यक्त्व और सम्यक्-मिथ्यात्व मिथ्यात्व की ही
जिसमें उद्धर्तना, अपवर्तना, संक्रमण और उदीरणा ये चारों अवस्थाएँ विशोधित अवस्थाएँ हैं। इन दो प्रकृतियों को उपर्युक्त एक सौ बाईस
असम्भव होती हैं। इस अवस्था का अर्थ है कर्म का जिस रुप में प्रकृतियों में से कम कर देने पर एक सौ बीस प्रकृतियाँ बाकी बचती
बंध हुआ उसी रुप में उसे अनिवार्यतः भोगना। इसी अवस्था का हैं जो बन्धनावस्था में विद्यमान रहती है। (इसका विस्तृत वर्णन कर्मग्रंथ
नाम नियति है। इसमें इच्छा-स्वातन्त्र्य का सर्वथा अभाव रहता है। 2 में देखना चाहिए।
किसी-किसी कर्म की यही अवस्था होती है। 5. उद्धर्तना - बद्धकर्मो की स्थिति और अनुभाग(व)-रस का निश्चय
11. अबाधा - कर्म का बँधने के बाद अमुक समय तक किसी बन्धन के समय विद्यमान कषाय की तीव्रता-मन्दता के अनुसार होता
प्रकार का फल न देना उसकी अबाध-अवस्था है। इस अवस्था के है। उसके बाद की स्थितिविशेष अथवा भावविशेष-अध्यवसायविशेष
काल को अबाधाकाल कहते हैं। के कारण उस स्थिति तथा अनुभाग में वृद्धि हो जाना उद्वर्तना कहलाता है। इस अवस्था को उत्कर्षण भी कहते हैं।
इस अबाधावस्था के काल के पश्चात् कर्म उदय में आता है और
फलानुभव कराने लगता है। फलानुभव के काल को 'कर्म निषेक 6.अपवर्तना - बद्धकर्मो की स्थिति तथा अनुभाग में अध्यवसायविशेष
काल' कहते हैं। ऊपर जो कर्म का स्थितिकाल बताया गया है, वह से कमी कर देने का नाम अपवर्तना है। यह अवस्था उद्धर्तना से
दोनों कालविपाक अबाधाकाल एवं निषेक काल को मिलाकर बताया बिलकुल विपरीत है। इसका दूसरा नाम अपकर्षण भी है। इन अवस्थाओं
गया है। जिस कर्म की स्थिति जितने सागरोपम की होती है - की मान्यता से यही सिद्ध होता है कि किसी कर्म की स्थिति एवं
उतने सौ वर्ष 'अबाधाकाल' होता है। उदाहरण के लिए ज्ञानावरणीय फल की तीव्रता-मन्दता में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं हो सकता,
कर्म की स्थिति "30 कोटकोटि सागरोपम की है तो उसका ऐसी बात नहीं है। अपने प्रयत्नविशेष अथवा अध्यवसायविशेष की
'अबाधाकाल' 3000 वर्ष" है तथा "निषेक काल 30 कोटाकोटि शुद्धता-अशुद्धता से उनमें समय-समय पर परिवर्तन होता रहता है।
सागरोपम कम 3000 वर्ष" है। अबाधाकाल में कर्म सत्ता में रहता एक समय हमने कोई अशुभ कार्य किया अर्थात् पापकर्म किया और
है, फल नहीं देता। यही विपाक काल (अबाधाकाल) है।101 दूसरे समय शुभ कार्य किया तो पूर्वबद्ध कर्म की स्थिति आदि में
कर्ममुक्ति विचार:यथा-सम्भव परिवर्तन हो सकता है। इसी प्रकार शुभ कार्य द्वारा बांधे गये कर्म की स्थिति आदि में भी अशुभ कार्य करने से समयानुसार
___ इस प्रकार कर्म के बंध के भेद, स्वभाव, विपाक एवं कारणों
को जानकर जीव उससे मुक्त होने का प्रयत्न करते हुए सम्यग्ज्ञान परिवर्तन हो सकता है। तात्पर्य यह है कि व्यक्ति के अध्यवसायों
के सत्यार्थ बल से मिथ्याज्ञान से निवृत्त होता हैं, मिथ्यात्व का नाश के अनुसार कर्मो की अवस्थाओं में परिवर्तन होता रहता है।
होने से उसके मूल स्वरुप रागादि नहि रहते, रागादि के अभाव में 7. संक्रमण - एक प्रकार के कर्मपुद्गलों की स्थिति आदि का
तदाधीन धर्म-अधर्म की उपपत्ति नहीं होने से पूर्वकृत एवं वर्तमान दूसरे प्रकार के कर्मपुद्गलों की स्थिति आदि में परिवर्तन अथवा परिणमन
बध्यमान कर्मों का तत्त्वज्ञान से, (तत्त्वज्ञानपूर्वक के) उपभोग से प्रक्षय/ होना संक्रमण कहलाता है। संक्रमण किसी एक मूल प्रकृति की
संपूर्ण क्षय होता है। जैसे प्रज्वलित अग्नि इन्धनों को भस्मीभूत करता उत्तरप्रकृतियों में ही होता है, विभिन्न मूल प्रकृतियों में नहीं। दूसरे
है वैसे ज्ञानरुपी अग्नि सर्वकर्मों को भस्मीभूत करता है। नित्य-नैमित्तिक शब्दो में सजातीय प्रकृतियों में ही संक्रमण माना गया है, विजातीय आराधना से दुरित क्षय होता है, उससे आत्मा ज्ञान को निर्मल करके प्रकृतियों में नहीं। इस नियम के अपवाद के रुप में आचार्योंने यह
अनुभवपूर्वक दृढ करता है, अभ्यासपूर्वक के अनुभव ज्ञान से मनुष्य भी बताया है कि आयु कर्म की प्रकृतियों में परस्पर संक्रमण नहीं केवलज्ञान को प्राप्तकर अंत में शैलेशी अवस्था में योग-निरोध करके होता और न दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय में तथा दर्शनमोहनीय सर्वकर्म क्षय कर मोक्ष को प्राप्त होता है। की तीन उत्तर-प्रकृतियों में ही (कुछ अपवादों को छोड कर) परस्पर संक्रमण होता है। इस प्रकार आयु कर्म की चार उत्तरप्रकृतियाँ, दर्शनमोहनीय
101. अ.रा.पृ. 3/278 से 283, 3/290 102. अ.रा.पृ. 3/334-35
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