Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
में तत्त्वज्ञान के प्रति, उसके वक्ता के प्रति या उसके साधनों के प्रति द्वेष रखना। ईर्ष्या, पैशून्ययुक्त परिणामों का नाम प्रदोष / प्रद्वेष हैं।
निह्नव - बहाना बनाकर 'मैं नहीं जानता' या 'यह ऐसा नहीं है' - इस प्रकार ज्ञान - ज्ञानी का अपलाप करना, छिपाना, अहंकारवश या अपनी विद्वता प्रदर्शित करने हेतु ज्ञानदाता गुरु का नाम छिपाना अथवा उत्सूत्र प्ररूपणा करना, निह्नव कहलाता है। (निह्नव= छिपना, गुप्त रखना)
मात्सर्य - स्वयं विद्वान् और शास्त्र के अभ्यासी होते हुए और ज्ञान ग्राहक पात्र भी योग्य और अधिकारी होने पर भी बहाना बनाकर ज्ञान नहीं देने की कलुषित वृत्ति मात्सर्य भाव हैं।
अन्तराय - विघ्न डालना ज्ञान प्राप्ति में भोजन, स्थान, विद्याभ्यास हेतु छात्रों को या साधु-साध्वी को उचित समय, ज्ञानोपकरण पुस्तकादि या ज्ञानदाता की प्राप्ति में बाधा डालना ।
आसादन आशातना - ज्ञानदाता को वाणी या शरीर से ज्ञान देते रोकना, प्रशंसनीय विद्या, ज्ञान, बुद्धि आदि की प्रशंसा न करना; अनुमोदन न करना, विशिष्ट ज्ञानी को हीनकुलादि का बताना, उनके संबंधित मर्मभेदी बातों को लोक में प्रकाशित करना आसादन कहलाता हैं।
उपघात - नाश करना। ज्ञानी, ज्ञान के साधन, ज्ञान के स्थान / पाठशालादि का नाश करना अथवा किसी के उचित कथन में अपनी विपरीत मति, बुद्धि, इच्छा के कारण दोष निकालना, दूषण देना - उपघात कहलाता हैं।
इसी प्रकार निषिद्ध स्थान (श्मसान, अशुचियुक्त भूमि आदि, निषिद्ध काल (असज्झाय काल) में अभ्यास करना, ज्ञानी, विद्यागुरु का विनय न करना, पुस्तकादि को भूँक लगाना, ज्ञान के साधन को पैरों से हटाना, उनको तकिये के रुप में उपयोग में लेना, पुस्तकों को भण्डार में पडे-पडे सडने देना किन्तु सदुपयोग नहीं होने देना, पुस्तकादि को योग्य स्थान पर न रखना, उन्हें उदर-पोषण के लक्ष्य से बेचना तथा ऐसे अन्य कार्य करने से ज्ञानावरणीय कर्मों का बन्ध होता हैं।
दर्शनावरणीय कर्म- जो दर्शन अर्थात् सम्यक्त्व को आवृत्त करे, वह दर्शनावरण कहलाता | पदार्थ के सामान्य बोध स्वरुप दर्शन की प्राप्ति में अपने प्रभाव से जो रुकावट डालता है वह दर्शनावरण कहलाता है। जीव के व्यापार के द्वारा आकृष्ट हुई कार्मण वर्गणाओं के अन्तर्गत मिथ्यात्वादि संबंधी कार्मण वर्गणाओं के विशिष्ट पुद्गल समूह का आवरण 'दर्शनावरणीय कर्म' कहलाता हैं। 17 दर्शनावरणीय कर्म की नौ उत्तर- प्रकृत्तियाँ हैं :
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1. चक्षुर्दर्शनावरण, 2. अचक्षुर्दर्शनावरण, 3. अवधिदर्शनावरण, 4. केवलदर्शनावरण, 5. निद्रा, 6. निद्रा-निद्रा, 7. प्रचला, 8. प्रचलाप्रचला और 9. स्त्यानर्द्धि- स्त्यानगृद्धि । आँख के द्वारा पदार्थों के सामान्य धर्म के ग्रहण को चक्षुर्दर्शन कहते हैं। इसमें पदार्थ का साधारण आभासमात्र होता है। चक्षुर्दर्शन को आवृत करनेवाला कर्म चक्षुर्दर्शनावरण कहलाता है। आँख को छोडकर अन्य इन्द्रियों तथा मन से जो पदार्थों का सामान्य प्रतिभास होता है उसे अचक्षुर्दर्शन कहते है। इस प्रकार के दर्शन का आवरण करने वाला कर्म अचक्षुर्दर्शनावरण कहलाता है । इन्द्रिय और मन की सहायता की अपेक्षा न रखते हुए आत्मा द्वारा रुपी पदार्थों का सामान्य बोध होने का नाम अवधिदर्शन
चतुर्थ परिच्छेद... [211]
है। इस प्रकार के दर्शन को आवृत करनेवाला कर्म अवधिदर्शनावरण कहलाता है। संसार के अखिल त्रैकालिक पदार्थों का सामान्यावबोध केवलदर्शन कहलाता है। इस प्रकार के दर्शन का आवरण करनेवाला कर्म केवलदर्शनावरण के नाम से प्रसिद्ध है। निद्रा आदि अंतिम पाँच प्रकृतियाँ भी दर्शनावरणीय कर्म का ही कार्य है। जो सोया हुआ प्राणी थोडी सी आवाज से जग जाता है अर्थात् जिसे जगाने में परिश्रम नहीं करना पडता उसकी नींद को निद्रा कहते हैं। जिस कर्म के उदय से इस प्रकार की नींद आती है उस कर्म का नाम भी निद्रा है। जो सोया हुआ प्राणी बडे जोर से चिल्लाने, हाथ से जोर से हिलाने आदि से बडी मुश्किल से जागता है उसकी नींद एवं तन्निमित्तक कर्म दोनों को निद्रानिद्रा कहते हैं। खड़े-खडे या बैठे-बैठे नींद लेने का नाम प्रचला है। उसका हेतुभूत कर्म भी प्रचला कहलाता है। चलते-फिरते नींद लेने का नाम प्रचलाप्रचला है। तन्निमित्तभूत कर्म को भी प्रचलाप्रचला कहते हैं। दिन में अथवा रात में सोचे हुए कार्यविशेष को निद्रावस्था में सम्पन्न करने का नाम स्त्यानर्द्धि- स्त्यानगृद्धि है। जिस कर्म के उदय से इस प्रकार की नींद आती है उसका नाम भी स्त्यानर्द्धि अथवा स्त्यानगृद्धि है । 18
दर्शनावरणीय कर्म आत्मा की दर्शन शक्ति को प्रगट नहीं होने देता तथा उपरोक्त पाँचों निद्राएँ प्राप्त दर्शन को समूल नष्ट कर देती है। जिस प्रकार द्वारपाल दर्शनार्थी को राजदर्शन से वंचित रखकर महल के अंदर प्रवेश में रुकावट डालता है उसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म जीव को आत्म-दर्शन से वंचित रखकर मुक्ति-महल में प्रवेश करने में रुकावट डालता है। 19 दर्शनावरणीय कर्म के बन्ध के कारण:
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ज्ञानावरणीय कर्म के समान ही छः प्रकार के अशुभ आचरण के द्वारा दर्शनावरणीय कर्म का बन्ध होता है
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सम्यग्दृष्टि की निन्दा (छिद्रान्वेषण) करना अथवा उसके प्रति अकृतज्ञ होना,
मिथ्यात्व या असत् मान्यताओं का प्रतिपादन करना, शुद्ध द्दष्टिकोण की उपलब्धि में बाधक बनना,
सम्यग्द्दष्टि का समुचित विनय एवं सम्मान नहीं करना, सम्यग्द्दष्टि पर द्वेष करना,
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सम्यग्द्दष्टि के साथ मिथ्याग्रह सहित विवाद करना । 20 वेदनीय कर्म :- अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार जिसके कारण सांसारिक सुख-दुःख (शाता - अशाता) की संवेदना होती है, उसे वेदनीय कर्म कहते हैं। 21
वेदनीय कर्म के उदय से आत्मा को सुख या दुःख का वेदन होता है । 22 यह आत्मा के अव्याबाध (सदा आनन्दमय रहना) सुख के गुण को आवृत्त करता है। यह जीव को क्षणभंगुर सुख का लालची बनाकर अनन्त दुःख के समुद्र में धकेल देता है । वेदनीय कर्म दो प्रकार का होता है साता वेदनीय इसके उदय से जीव अनुकूल सांसारिक विषय, भोजन, वस्त्र आदि तथा शारीरिक एवं मानसिक 17. अ. रा. पृ. 4/2437; जै. सि.को. 3/419
18. वही पृ. 4/2437-38; 3/259, जै. सि.को. - 3/420, प्रथम कर्मग्रथं 10, तत्त्वार्थ सूत्र - 8 / 6; उत्तराध्ययन सूत्र-33/5,6
19. अ.रा.पू. 4/2438
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तत्त्वार्थ सूत्र 6 / 11; जैन विद्या के आयाम पृ. 6/211
21. अ. रा.पृ. 3/260; 6/1448 22. जै.सि.को. 3/591
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