Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन उपशम श्रेणिवाल जीव 11 वें उपशांत मोह गुणस्थान को प्राप्त कर है ।
इस गुणस्थान की जघन्य एक समय मरण की अपक्षा से एवं उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक स्थिति है ।
11. उपशान्तमोह गुणस्थान:
अभिधान राजेन्द्र कोश के द्वितीय भाग में उपशांत मोह गुणस्थान का परिचय देते हुए आचार्यश्रीने कहा है- कषाय और राग (माया-लोभ) के उपशान्त (उदय नहीं) होने पर भी छद्म अर्थात् घातीकर्म शेष रहते हैं । अतः इस गुणस्थान को उपशान्तकषायछद्मस्थवीतराग गुणस्थान भी कहते है। मोहकर्म के उपशान्त हो जाने से इस गुणस्थान में वीतरागता तो होती है; किन्तु ज्ञान, दर्शन आदि आत्मगुणों को आवृत करनेवाले कर्म विद्यमान रहते हैं। इस कारण वीतरागता होने पर भी वह अल्पज्ञ छद्मस्थ है।
दसवें गुणस्थान के अन्त में सूक्ष्म लोभ का उपशमन होते ही जीव इस गुणस्थान को प्राप्त करता है। जिस तरह गंदे पानी में कतकफल या फिटकडी आदि डालने से उसका मल नीचे बैठ जाता है और स्वच्छ पानी ऊपर आ जाता है वैसे ही इस गुणस्थान में शुक्लध्यान से मोहनीय कर्म को अन्तर्मुहूर्त के लिए उपशान्त कर दिया जाता है। इस कारण जीव के परिणामों में एकदम वीतरागता, निर्मलता और पवित्रता आ जाती है। इसी कारण इसे उपशान्तमोह या उपशान्तकषाय भी कहते हैं । यह गुणस्थान उपशम श्रेणी का अंतिम स्थान है। अतः यह जीव ग्यारहवें गुणस्थान से अवश्य गिरता है।
इस गुणस्थान की कालमर्यादा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । यदि गुणस्थान का समय पूरा होने के पहले कोई जीव भव (आयु) के क्षय से गिरता है; तो वह अनुत्तर विमान में उत्पन्न होता है और चौथे ही गुणस्थान को प्राप्त करता है । और इस गुणस्थान में उन सब प्रकृतियों के बंध, उदय आदि को प्रारंभ कर देता है, जितनी प्रकृतियों के बंध आदि की संभावना इस गुणस्थान में है 2
परन्तु भवायु के शेष रहते हुए गुणस्थान का समय पूरा हो जाने पर जो जीव अवरोहण करता है; वह पतन के समय आरोहण क्रम के अनुसार गुणस्थान को प्राप्त करता है और उस उस गुणा के योग्य कर्म प्रकृतियों का बंध, उदय, उदीरणा करना प्रारंभ कर देता है। अर्थात् अवरोहण के समय आरोहण क्रम के अनुसार तत् तत् गुणस्थान की प्रकृतियों का बंध आदि करता है और गुणस्थान का काल समाप्त हो जाने पर गिरनेवाला कोई जीव छठे गुणस्थान, कोई पाँचवे गुणस्थान, कोई चौथे और कोई तीसरे, दूसरे गुणस्थान में होते हुए पहले तक आ सकता है या आठवें गुणस्थान से वापिस क्षपक श्रेणी को प्राप्त हो सकता है ।
12. क्षीणमोह गुणस्थानः
इस गुणस्थान का परिचय देते हुए अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने लिखा है कि "मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय होने के पश्चात् यह गुणस्थान प्राप्त होता है।" सत्ता सहित मोहनीय का सर्वथा क्षय हो जाने से वीतरागता प्राप्त होने पर भी तीन छद्म घातीकर्म ज्ञानावरण, दर्शनावरण, और अंतराय अभी विद्यमान होने से इस गुणस्थान का पूरा नाम 'क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ' है" ।
चतुर्थ परिच्छेद... [197]
इस गुणस्थान की जघन्य और उत्कृष्ट काल स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है और पूर्व में अबद्धायुः क्षपक श्रेणीवाले जीव ही इस गुणस्थान को प्राप्त करते हैं। इस गुणस्थानवर्ती जीव के भाव स्फटिक मणि के निर्मल पात्र में रखे हुए जल के समान निर्मल होते हैं। इस गुणस्थानवर्ती जीव नीचे नहीं गिरता अतः उसका पतन नहीं होता। क्षपक श्रेणिवाला जीव नियम से आठवर्ष से ऊपर की उम्रवाला होता है। क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती अप्रमत्त आत्मा शुक्ललेश्या एवं शुक्लध्यान युक्त होती है" । 13. सयोगी केवली गुणस्थान:
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सयोगी केवली गुणस्थान को समझने के लिये पहले 'योग' शब्द को समझना आवश्यक है। अभिधान राजेन्द्र कोश में 'जोग' शब्द का परिचय देते हुए आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने द्रव्य से मन-वचन और काया के बाह्य व्यापार को 'योग' कहा है" । भावयोग की व्याख्या करते हुए कहा है
" तद्यथा प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च । तत्र प्रशस्तः सम्यक्त्वादिः । आदि शब्दाद् ज्ञानावरण-परिग्रहः । प्रशस्तता चास्य प्रशस्यते युज्यते अनेनात्माऽऽपवर्गेणेत्यन्वर्थबलात् । इतरो मिथ्यात्वादियोगो विपरीतोऽप्रशस्तः, युज्यतेऽनेनाऽऽत्मा अष्टविधेन कर्मणेति व्युत्पत्तिभावात्" ।"
अर्थात् भाव योग दो प्रकार का है प्रशस्त और अप्रशस्त । सम्यक्त्वादि को प्रशस्त योग या जो आत्मा को अपवर्ग अर्थात् मोक्ष
88. गुणस्थान क्रमारोह गाथा 73 एवं 42, जैन तत्त्वज्ञान चित्रावली प्रकाश पृ. 38 89. अ. रा. पृ. 7/1025
90.
अ. रा. पृ. 2/983, 984, गोम्मटसार, जीवकांड, गाथा 61 व टीका; सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका, पृ. 167, 168
(क) अधोमले यथा नीते, कतके नाम्भोऽस्तु निर्मलम् ।
उपरिष्टात्तथाशान्तः, मोहो ध्यानेन मोहतो | संस्कृत पंचसंग्रह 1/47 (ख) गोम्मटसार, जीवकांड 61
(ग) द्रव्यलोकप्रकाश 3/1197, 98
92.
अ. रा. पृ. 3 / 916, द्रव्यलोकप्रकाश 3/1207, 1208, 1211, 1212 93. (क)....। यः पुनरेकंवारं प्रतिपद्यते तस्य क्षपक श्रेणिर्भवेदपि उक्तं च सप्ततिकाचूर्णी - " .. जो इक्कसि उवसमसेढि पडिवज्जइ तस्स खवगसेढी हुज्जति" एष कार्मग्रंथिकाभिप्रायः । सिद्धान्ताभिप्रायेण त्वकस्मिन् भवे एकमेव श्रेणि प्रतिपद्यते । अ.रा. पृ. 2/1046 (ख) द्रव्यलोकप्रकाश-3/1207, 1208
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अ. रा.पू. 31746, द्रव्यलोकप्रकाश- 3/1216-17, गोम्मटसार, जीवकांड, गाथा व टीका; सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका, पृ. 168; समयसार, गाथा 33 व अर्थ; 95. अ. रा. भा. 3, 'खवगसेढि' शब्द द्रव्यलोकप्रकाश 3/1235/36 96 (क) .... क्षपक श्रेणिप्रस्थापक:
सोऽवश्यं मनुष्यो वषाष्टिकाच्चो परिवर्तमानः । तत्र पूर्वविदप्रमत्तः शुक्लध्यानोपगतोऽपि एतां प्रतिपद्यते । अ. रा. पृ. 3/738 (ख) लेश्यायामपि च पूर्वशुक्ललेश्यायामासीत्...। - वही, पृ. 3929 (ग) "क्षपक श्रेणिप्रतिपन्नः मनुष्यो वषाष्टिकोपरिवर्ती अविरतादीनां अन्यतमः अत्यन्तशुद्धपरिणामः अत्तमसंहननः तत्र पूर्वविद् अप्रमत्तः शुक्लध्यानोपगतोऽपि केचन धर्मध्यानोपगतः इत्याहुः ।।
• कर्मग्रंथ लघुवृत्ति; द्रव्यलोकप्रकाश, पृ. 272, सर्ग 3 की गाथा 1218 की टिप्पणी से उद्धृत
94.
97. 98.
अ. रा. पृ. 4 / 1613
अ. रा.पू. 4/1613
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