Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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[202]... चतुर्थ परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन अथवा यों कह सकते हैं कि उक्त चार अवस्थाएँ चतुर्थ आदि गुणस्थानों की प्राप्ति का कारण बताते हुए कहा है- पर्याप्त अपर्याप्त सूक्ष्म एसे की संक्षेप हैं।
महासंक्लिष्ट परिणाम के कारण मिथ्यात्व गुणस्थान प्राप्त होता है। पूर्व बौद्ध दर्शन में बोधिसत्त्व का जो लक्षण हैं।42; वह जैन
भव में प्राप्त सम्यक्त्व का वमन कर जो जीव अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय दर्शन के सम्यग्दृष्टि के समान है। जो सम्यग्दृष्टि होता है; वह ग्राहस्थिक
(पृथ्वी-अप्-वनस्पति) में, अपर्याप्त विकलेन्द्रिय और अपर्याप्त संज्ञि आरंभ-समारंभ में लग कर भी तप्तलोह-पदन्यासवत् सकंप एवं पापभीरु
और असंज्ञि पंचेन्द्रिय में उत्पन्न होते हैं एसे लब्धि पर्याप्त परन्तु करण होता है। यही रुप बौद्ध दर्शन में स्वीकार किया गया है कि बोधिसत्व
अपर्याप्त जीवों को ही सास्वादन गुणस्थान उत्पत्ति के प्रथम समय में शरीर मात्र से अवश्य सांसारिक प्रवृत्ति में पड़नेवाला होता है; किन्तु
होता है बाद में तो सभी जीव मिथ्यात्व गुणस्थान को ही प्राप्त करता हैं।
और जब तीर्थंकर होने वाली आत्मा या अन्य कोई क्षायिक सम्यक्त्वी चित्तपाती (मन से लगने वाला) नहीं होता143 ।
आत्मा अथवा तीर्थंकर के अलावा अन्य कोई क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी बौद्ध दर्शन मान्य उक्त आध्यात्मिक विकास की अवस्थाओं
आत्मा पूर्व भव का क्षायिक या क्षायोपशमिक सम्यक्त्व लेकर यहाँ का सामान्यतः यह मन्तव्य है कि पहली अवस्था में आध्यात्मिक
पर्याप्त संज्ञि पंचेन्द्रिय रुप में जन्म लेती है तब वह लब्धि पर्याप्त परन्तु विकासवाले और अविकासवाले दोनों प्रकार के जीव हो सकते हैं।
करण अपर्याप्त अवस्था में सीधे ही अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में जो विकास की ओर उन्मुख हैं वे तो धर्मानुसारी (कल्याण पुथुज्जन) उत्पन्न होती है इस प्रकार इस अपेक्षा से अपर्याप्त संज्ञि पंचेन्द्रिय को हैं और उसके पूर्व आत्मा की जो दशा है उसे अंध पुथुजन कहते मिथ्यात्व, सास्वादन और अविरत सम्यग्दृष्टि - ये तीन गुणस्थान प्राप्त हैं। सोतापन्न आदि शेष अवस्थाएँ निश्चित रुप से विकास के क्रम होते हैं।48 । मिश्र गुणस्थनक केवल पर्याप्त संज्ञि पंचेन्द्रिय जीव को ही की दर्शक हैं एवं अरहा अवस्था सशरीरी पूर्ण विकास की स्थिति प्राप्त होता है। अतः अपर्याप्त अवस्था में इसकी प्राप्ति नहीं होती। को बतलाती है और उसके बाद निर्वाण होता हैं।144
मिथ्यात्वी में से सम्यक्त्व प्राप्त कर कर्मक्षय करके मोक्ष प्राप्ति की इस प्रकार यद्यपि बौद्ध दर्शन में आत्मविकास का वर्णन
योग्यता होने से पर्याप्त संज्ञि पंचेन्द्रिय अवस्था में मनुष्य को सभी
अर्थात् चौदह गुणस्थान प्राप्त होते हैं और सम्यक्त्वी देव तथा नारक को अवश्य लिया गया है, लेकिन उसमें गुणस्थानों के वर्णन की तरह
अविरत सम्यग्दृष्टि तक और तिर्यंच को देशविरति तक के गुणस्थान प्राप्त क्रमबद्धता के दर्शन नहीं होते। इसलिए आंशिक तुलना हो सकती
होते हैं।4। है; पूर्ण नहीं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि आत्मविकास के इच्छुक दर्शनों 142. कायपातिन एवेह, बाधिसत्त्वाः परोदितम् । न चित्तपातिनस्तावदेतदभादि ने अपने-अपने ढंग से विकासक्रम का उल्लेख किया है। इसलिए
युक्तिमत् ।। -- योगबिन्दु 271 यह तो कहा जा सकता है कि मोक्ष को स्वतंत्र पुरुषार्थ मान कर 143, एवं च यत्परैरुक्तं, बधिसत्वस्य लक्षणम्। विचार्यमाणं सनीत्या,
तदप्यत्रोपपद्यते। उसकी उपलब्धि सभी को इष्ट है; पर उनमें क्रमबद्ध धारा के दर्शन
तप्तलोहपदन्यासतुल्यावृत्ति क्वचिद्यदि । इत्युक्ते कायपात्येव चित्तपाती न अवश्य नहीं होते। जैन दर्शन में इसकी सविस्तार चर्चा हुई है; जो
संस्मृतः ॥ गुणस्थान के रुप में पूर्व में बतायी गयी है।
-सम्यग्दृष्टि द्वात्रिंशिका 10, || गुणस्थान में जीवस्थान
144. आध्यात्मिक विकास की भूमिका एवं पूर्णता-62 ___ गुणस्थान में वर्णित आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया जीव
145. अ.रा.पृ. 3/916-918: 4/1548-1552; कर्मग्रंथ 4, मार्गणास्थानप्रकरण
- पर विवेचन - आचार्य श्रीमद्विजय वीरशेखरसूरि, पृ. 4, 30,31 ही करता है, अजीव नहीं। अतः प्रसंगवश राजेन्द्र कोश145 में और
146. समयसार, 65; समयसार वैभव, पृ. 71 समयसा[46 में जीवों के उक्त 14 भेदों का वर्णन किया गया है। साथ
147. अ.रापृ. 3/916, 917, 918 ही राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने ये जीव 14 गुणस्थानों में से कौन-कौन
148. अ.रा.पृ. 3/917, 918 से गुणस्थान प्राप्त करते हैं उसका भी वर्णन किया है।47 । इन गुणस्थानों 149. वही
('संघो गुणसंघातो') संघो गुणसंघातो, संघाय विमोयगो य कम्माणं । __ रागद्दोसविमुक्को, होइ समो सव्वजीवाणं ॥1॥ परिणामिय बुद्धीए, उववेतो होइ समणसंघो उ । कज्जे निच्छियकारी, सुपरिच्छियकारगो संघो ॥2॥ सीसे कुलव्वए वा, गणव्वए संघवए य समदरिसी । ववहारसंथवेसु य, सो सीयघरोवमो संघो ॥3॥
- आरा.पृ. 6/921
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