Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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[10]... प्रथम परिच्छेद
किया एवं वि.सं. 1980, ज्येष्ट सुदि अष्टमी, शुक्रवार को श्रीसंघ ने आचार्य पद प्रदान किया एवं श्री भूपेन्द्र सूरीश्वर जी नाम घोषित किया । वि.सं. 1990 में अहमदाबाद में हुए अ.भा. जैन श्वे. मूर्तिपूजक मुनि सम्मेलन में अनेकों आचार्य एवं सैकडों मुनियों के बीच जो 9 प्रामाणिक आचार्यों की समिति बनी थी, उसमें आप चतुर्थ स्थान पर थे।
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन आपको वि.सं. 1972 में वागरा (राज.) में श्रीमद्विजय धनचन्द्र सूरिजी म.सा. ने 'व्याख्यान वाचस्पति', वि.सं. 1980 में जावरा में श्रीमद्विजय भूपेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. ने 'उपाध्याय पद' एवं आ. सागरानंद जी के साथ शास्त्रार्थ में उसी वर्ष रतलाम नरेश की विद्वदुमंडली की मध्यस्थता में 'पीताम्बर विजेता' पदवी एवं वि.सं. 1995 में वैशाख सुदि दशमी को आहोर में श्रीसंघ ने आचार्य पदवी दी ।
आपके मुनि श्री विद्याविजयजी आदि 18 शिष्य थे एवं अनेकों शिष्याएं थी। आप विद्वानों से प्रेम रखते थे एवं उन्हें आदर और सम्मान देते थे ।
श्री दानविजयजी आदि 5 साधु एवं अनेक साध्वियाँ आपके हस्तदीक्षित हैं। आप स्वभाव से सरल और शांति प्रिय थे। साथ ही जैनागम एवं अन्य जैन-जैनेतर धार्मिक ग्रंथ, संस्कृत, प्राकृत व्याकरण, कोश, अलंकारादि, तर्क, न्याय आदि के प्रकाण्ड मर्मज्ञ विद्वान् थे ।
आपने विश्वविख्यात अभिधान राजेन्द्र कोश का संपादनसंशोधन एवं प्रकाशन कार्य मुनिश्री यतीन्द्र विजयजी के साथ रहकर पूर्ण जिम्मेदारी पूर्वक संपन्न किया। सूक्त मुक्तावली आदि 5 ग्रंथो की टीका, अनुवाद एवं अनेको चैत्यवन्दन - स्तुति-स्तवनादि की रचना की। आपकी रचनाओं में प्रचुर अर्थगांभीर्य प्राप्त होता है। आपका स्वर्गवास वि.सं. 1993 माघ शुक्ला सप्तमी को प्रातः आहोर (राज.) में हुआ। श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वर जी महाराज" :
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आपका जन्म ओशवंशी जायसवाल गोत्रीय दिगम्बर सम्प्रदायानुयायी श्री बृजलालजी की धर्मपत्नी चम्पादेवी की कुक्षी से वि.सं. 1940 कार्तिक शुक्ला द्वितीया, रविवार के दिन धौलपुर (धवलपुर) राजस्थान में हुआ था। आपका जन्मनाम रामरत्न था । जब रामरत्न 5 वर्ष के थे तब माता का स्वर्गवास हो गया और उनके पिताजी धौलपुर छोडकर भोपाल (म.प्र.) जा बसे। वहाँ रामरत्नने अल्पायु में ही दिगम्बर पाठशाला में पंचमंगल पाठ, तत्त्वार्थ सूत्र, रत्नकरण्डक श्रावकाचार, आलाप पद्धति, द्रव्य संग्रह, देवगुरु धर्म परीक्षा, नित्यस्मरणपाठ का अर्थ सहित अध्ययन किया, साथ ही भक्तामर, मंत्राधिराज, कल्याण मंदिर, विषापहार आदि स्तोत्र भी कंठस्थ किये । 12 वर्ष की अल्पायु में पिता का भी स्वर्गवास हो जाने से रामरत्र मामा के यहाँ रहे लेकिन वहाँ अनबन होने से वे उज्जैन में सिंहस्थ का मेला देखने आये। मेले के बाद श्री मक्षीजी तीर्थ की यात्रा कर महेन्द्रपुर (वर्तमान महिंदपुर सीटी) में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के दर्शन किये। मुनि दीपविजयजी (भोपालनिवासी होने से) आपके पूर्व परिचित थे तथा आचार्य श्री से प्रथम दर्शन एवं वार्तालाप से प्रभावित आपने अपने विद्वता एवं ज्ञानगांभीर्य से आचार्य श्री को भी प्रभावित कर आप आचार्यश्री के साथ रहे । विहार में आपके संस्कारी हृदय पर श्रीमद् गुरुदेव श्री के शुद्ध क्रियाकलाप, दैनिक दिनचर्या एवं विद्वता का अमिट प्रभाव पडा । फलस्वरुप रामरत्न ने वि.सं. 1954, आषाढ कृष्णा द्वितीया, सोमवार के दिन खाचरोद में आचार्यश्री के पास लघु दीक्षा एवं वि.सं. 1955 माघ शुक्ला पंचमी गुरुवार को आहोर (राज.) में बडी दीक्षा ली। आपका नाम गुरुदेव ने मुनि श्री यतीन्द्रविजयजी रखा। गुरुनिश्रा में नौ साल तक सतत रहने से आपको जैनागमों का तीव्र गति से अध्ययन, स्वाध्याय, विहार, प्रतिष्ठञ्जनशलाका, जीर्णोद्धार, दीक्षा, बडी दीक्षा, उपधान, उद्यापन (उजमणां), संघयात्रा, तीर्थयात्रा, ज्ञान भंडार स्थापना, शास्त्रार्थ, कलह-शांति आदि धर्मकार्यो का सर्वतोमुखी अनुभव प्राप्त हुआ। एवं बाद में आपने श्री संघ में ये सभी कार्य करवाये।
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आपने मुनि श्री दीपविजयजी के साथ रहकर अभिधान राजेन्द्र कोश का संपादन-संशोधन एवं प्रकाशन करवाकर गुरुदेव एवं श्रीसंघ का अभूतपूर्व विश्वास संपादन किया । स्वाध्याय और लेखन आपका प्रिय व्यसन था । आपके शिष्यों ने कभी आपको किसी से बात करते या फालतू बैठे नहीं देखा । हमेशा दीवाल की ओर मुख करके सतत लेखन आपकी प्रिय प्रवृत्ति थी । आपने तीन थुइ की प्राचीनता, सत्यबोध - भास्कर, पीत पटाग्रह मीमांसादि प्रायः 60 के करीब ग्रंथ लिखे। लेकिन आप एवं मुनि दीपविजयजी द्वारा लिखित अभिधान राजेन्द्र कोश के प्रथम भाग का उपोद्घात कोई पढे, वह सहज ही आपकी विद्वत्ता के प्रति नतमस्तक हो जाता है । मेरी नेमाड यात्रा, मेरी गोडवाड यात्रा आदि में आपने विभिन्न गाँव नगरों के लोगों के रहन-सहन एवं स्वभाव के विषय में जो बातें लिखी है वह आज भी इतनी ही सत्य साबित होती हैं। इतना ही नहीं जैन श्वे. श्रीसंघ अन्य बडे-बडे विद्वान् आचार्य भी आपकी कही हुई बातों को सैद्धांतिक रूप से प्रामाणिक मानते थे एवं विभिन्न विषयों में आपकी सलाह लेते थे ।
आपने आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी द्वारा पुनः प्रचारित त्रिस्तुतिक सिद्धांत एवं गच्छ की आचार मर्यादा का दृढतापूर्वक पालन करने के साथ श्रीसंघ में उन सिद्धांतो का प्रचार-प्रसार कर दृढतापूर्वक पालन करवाया। सामाजिक एकता एवं समाज सेवा हेतु आपने अपने अंतिम जीवन में वि.सं. 2016 में 'अखिल भारतीय श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद्' की स्थापना की एवं सामाजिक जागृति हेतु समाज का मासिक पत्र 'शाश्वत धर्म' शुरु करवाया।
वि.सं. 2017 कार्तिक पूर्णिमा को आपने अपनी पाट पर अपने उत्तराधिकारी के रुप में मुनि श्री विद्याविजयजी को 'आचार्य' एवं मुनि श्री जयन्तविजयजी को 'युवाचार्य' पद पर घोषित कर वि.सं. 2017 पौष सुदि तृतीया बुधवार दि. 21-22-1960 को प्रातः 4.00 बजे स्वर्गवासी हुए। श्री मोहनखेडा तीर्थप्राङ्गण में आपका दिव्य, मनोरम, संगमरमरीय गुरुमंदिर आज भी आपकी साक्षात् स्मृति करवाता है।
श्रीमद्विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज' 5 :
आपका जन्म जोधपुर (राज.) में राठौरवंशीय (राजपूत) क्षत्रिय गिरधरसिंह की धर्मपत्नी सुन्दरबाई की कुक्षी से वि.सं. 1957 पौष
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श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ एवं आचार्य श्रीमद्विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी म.सा. के प्रवचन वि.सं. 2044 भाण्डवपुर तीर्थ पौष सुदि 3
श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ - वासक्षेप पृ.22
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