Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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[184]... चतुर्थ परिच्छेद
के अनुसार जुटते और बिखरते हैं। अनेक सामाजिक और राजनैतिक मर्यादाएँ साता और असाता के साधनों की व्यवस्थाएँ बनाती हैं। पहले व्यक्तिगत संपत्ति और साम्राज्य का युग था तो उसमें उच्चतम पद पाने में पुराने साता के संस्कार कारण होते थे, तो अब प्रजातंत्र युग में जो भी उच्चतम पद हैं, उन्हें पाने में भी संस्कार सहायक
के
होंगे।
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन होने को प्रतिसमय तैयार बैठी हैं, उनमें से उपयुक्त योग्यता का उपयुक्त समय में विकास करा लेना, यही नियति के बीच पुरुषार्थ का कार्य है। इस पुरुषार्थ से कर्म भी एक हद तक नियंत्रित होते हैं । 6. जीव का उपयोग स्वभाव" :
चारित्र के सैद्धांतिक पक्ष को आधार प्रदान करने वाला एक पक्ष है जीव का उपयोग स्वभाव। क्योंकि यदि जीव का स्वभाव 'उपयोग' न हो तो चारित्र अर्थात् कर्मसंवर और कर्मनिर्जरा का कारण भूत क्रियाकलाप आधारहीन रह जाता है। इसी प्रकार बन्ध की भी सत्ता सिद्ध नहीं हो सकती। उपयोग का अर्थ है चैतन्य परिणति 28 | चैतन्य ही जीव का असाधारण धर्म है जो इसे अन्य द्रव्यों से अलग करता है। अनादि काल से जीव एसा ही है और अनंत काल तक एसा ही रहेगा । यद्यपि इसके संसारी अवस्था में विभाव परिणाम अनेक प्रकार के हो सकते हैं जिन्हें दो भागों में वर्गीकृत किया जाता है : शुभोपयोग और अशुभपयोग। स्वभाव परिणाम को शुद्धपयोग कहते हैं । द्रव्य संग्रह में इन तीनों को लक्ष्य में रखकर जीव को कर्ता और भोक्ता और सिद्ध भी कहा है। 29
वस्तुतः विभाव परिणाम भी पूर्णतया जीव के नहीं है किन्तु पुद्गल - संयोगावस्था में होने वाले परिणाम हैं। कारण, यदि ये जीवमात्र के परिणाम होते तो इनमें कभी मुक्ति नहीं हो सकती थी लेकिन यह तो लोकव्यवहार में भी देखा जाता है कि जीव का कोई परिणाम दूसरे ही क्षण नष्ट हो जाता है। जैसे किसी व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति पर क्रोध आने पर उसका बुरा कर लेने के बाद क्रोध शान्त हो जाता है अर्थात् क्रोध आता भी है इसीलिए जाता भी है। इसी प्रकार सभी विभावों के बारे में समझना चाहिए। ये सभी भाव पुद्गल के निमित्त से होते हैं। उदाहरण के लिए क्रोध किसी मूर्तिमान् पर ही आता है और उसे (मूर्तिमान् को) ही विकृत किया करता है; और पुद्गलबद्ध जीव को ही क्रोध करते देखा जाता है मुक्त जीवों को नहीं। और यह भी कि क्रोध का परिणाम भी नेत्ररक्तिमा, कम्प आदि और विखंडन (वधच्छेद) आदि पुद्गल में ही देखे जाते हैं। इसलिए आचार्य कुन्दकुन्द ने तो इन्हें पौद्गलिक भाव तक कह दिया है।
जगत् के प्रत्येक कार्य में किसी-न-किसी के अदृष्ट को निमित्त मानना न तो तर्कसिद्ध है और न अनुभवगम्य ही। इसी तरह यदि परम्परा से कारणों की गिनती की जाय तो कोई व्यवस्था ही नहीं रहेगी। कल्पना कीजिए आज कोई व्यक्ति नरक में पड़ा हुआ असाता के उदय में दुःख भोग रहा है और एक दरी किसी कारखाने में बन रही है जो 20 वर्ष बाद उसके उपयोग में आयेगी और साता उत्पन्न करेगी तो आज उस दरी में उस नरक स्थित प्राणी के अदृष्ट को कारण मानने में बडी विसंगति उत्पन्न होती है । अतः समस्त जगत् के पदार्थ अपने-अपने साक्षात् उपादान और निमित्तों से उत्पन्न होते हैं और यथासंभव सामग्री के अन्तर्गत होकर प्राणियों के सुख और दुःख में तत्काल निमित्तता पाते रहते हैं। उनकी उत्पत्ति में किसी-न-किसी के अदृष्ट को जोडने की न तो आवश्यकता ही है और न उपयोगिता ही और न कार्यकारण व्यवस्था का बल ही उसे प्राप्त है।
कर्मो का फल देना, फलकाल की सामग्री पर निर्भर करता है । जैसे एक व्यक्ति के असाता का उदय आता है, पर वह किसी साधु के सत्संग में बैठा हुआ तटस्थ भाव से जगत् के स्वरुप को समझकर स्वात्मानंद में मग्न हो रहा है। उस समय आनेवाली असाता का उदय उसे व्यक्ति को विचलित नहीं कर सकता, किन्तु वह बाह्य असाता की सामग्री न होने से बिना फल दिये ही झड़ जायेगा । कर्म अर्थात् पुराने संस्कार । वे संस्कार अबुद्ध व्यक्ति के ऊपर ही अपना कुत्सित प्रभाव डाल सकते हैं, ज्ञानी पर नहीं । यह तो बलाबल का प्रश्न है। यदि आत्मा वर्तमान में जागृत है तो पुराने संस्कारों पर विजय पा सकता है और यदि जागृत नहीं है तो वे कुसंस्कार ही फूलते - फलते जायेगे। आत्मा जब से चाहे तब से नया कदम उठा सकता है और उसी समय से नवनिर्माण की धारा प्रारंभ कर सकता है। इसमें न किसी ईश्वर की प्रेरणा की आवश्यकता है और न "नाऽभुक्तं क्षीयते कर्म" के अटल नियम की अनिवार्यता ही है।
जगत् का अणु-परमाणु ही नहीं किन्तु चेतन आत्माएँ भी प्रतिक्षण अपने उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य स्वभाव के कारण अविराम गति से पूर्व पर्याय को छोड़ उत्तर पर्याय को धारण करती जा रही हैं। जिस क्षण जैसी बाह्य और आभ्यन्तर सामग्री जुटती जाती है उसकी के अनुसार उस क्षण का परिणमन होता जाता है। हमें जो स्थूल परिणमन दिखाई देता है वह प्रतिक्षणभावी असंख्य सूक्ष्म परिणमनों का जोड और औसत है। इसी में पुराने संस्कारों की कारण सामग्री के अनुसार सुगति या दुर्गति होती जाती है। इसी कारण सामग्री के जोड़-तोड और तरतमता पर ही परिणमन का प्रकार निश्चित होता है। वस्तु के कभी सदृश, कभी विसदृश, अल्पसदृश, अर्धसदृश और असदृश आदि विविधप्रकार के परिणमन हमारी दृष्टि से बराबर गुजरते हैं। यह निश्चित है कि कोई भी कार्य अपने कार्यकारण भाव को उल्लंघन करके उत्पन्न नहीं हो सकता । द्रव्य में सैकडों ही योग्यताएँ विकसित
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दूसरे यह कि यदि क्रोधादि भाव जीव का स्वभाव परिणाम होता तो क्रोध हमेशा बना रहना चाहिए किन्तु सदा क्रुद्ध तो कोई नहीं देखा जाता । और यह भी कभी नहीं देखा गया कि जब जीव अचेतन परिणतिवाला हुआ हो। सूक्ष्मातिसूक्ष्म जीव में भी चेतनत्व को ही लक्षण स्वीकार किया गया है।
कहने का अभिप्राय यह है कि इच्छा-द्वेष आदि भी संयोगी अवस्था में होनेवाले जीव के विभाव परिणाम कहे जाते हैं उस परिणाम में भी जीव तो उसका ज्ञाता मात्र रहता है, सुख दुःख आदि विकार तो वेदन विभाव परिणाम के कारण होता है स्वभाव से तो ज्ञानमात्र ही वेदन होता है। अर्थात् निश्चय से तो पुद्गल ही कर्म का कर्ता भी है और भोक्ता भी ।
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अ. रा. पृ. 2/ 287; 4/1519
उपयोगो लक्षणम् । - तत्त्वार्थसूत्र 2/8
जीवो उवओगमओ अमुत्ति कत्ता सदेहपरिमाणो ।
भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्ससोड्गढई ॥ द्रव्यसंग्रह, गाथा 2
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