Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
चूँकी यह कर्मास्रव, बन्ध और उसके विपाक स्वरुप फल का भोग जीव की संयोगी अवस्था में किया जाता है इसीलिए व्यवहार से ये जीव के कहे जाते हैं। इस विषय में सांख्यों का सिद्धान्त भी इसी प्रकार का है ।
जैसे जीव के अशुभ उपयोग व्यावहारिक दृष्टि से कहे गयें हैं, वैसे ही शुभ ( राग, करुणा आदि ) भाव भी समझने चाहिए। इन दोनों विभाव परिणामों अर्थात् अशुभोपयोग और शुभोपयोग से भिन्न शुद्धोपयोग जीव का स्वभाव परिणाम है जैसे ज्ञान और आत्मसंवेदन (स्वानुभव) । कारण कि ज्ञान सदा ही अंश मात्र में तो अनुभूत होता ही रहता है और मुक्तावस्था प्राप्त होने पर वह पूर्णता को प्राप्त और अक्षय हो जाता है अर्थात् उसमें तरतमता नहीं आती । 7. मोक्ष की सादि अनन्तताः
जैन सिद्धान्त में मोक्ष को सादि अनन्त माना गया है । 30 अर्थात् एक बार मोक्ष हो जाने पर उस अवस्था का कभी अन्त नहीं होता, क्योंकि बन्ध के हेतुओं का अभाव हो जाता है और पूर्व के कर्म नष्ट हो जाते हैं" । इसकी पुष्टि पतञ्जलि ने भी की है - कर्माशय नष्ट हो जाने पर जन्म-आयु और भोग नहीं होते। अक्षपाद गौतम का भी यही मत है कि एसे किसी पुरुष को जन्मता नहीं देखा गया जो वीतराग हो (वीतरागजन्मादर्शनात् ३) तथा यह भी कहा गया है कि जिसके क्लेश नष्ट हो गये हों उसकी प्रवृत्ति प्रतिसन्धान के लिए निमित्त नहीं होती 34। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जिनके वीतरागता नहीं है (जो राग-द्वेष आदि विभागों से युक्त है), उनके संसार का चक्र प्रवर्तमान रहता है। अर्थात् राग-द्वेषमूलक प्रवृत्ति ही संसार की कारण है। जैसे ही यह रागद्वेष समाप्त होता है वैसे ही अन्तहीन वीतरागता आरंभ हो जाती है। इसका दूसरा अभिप्राय यह भी है कि जो जीव संसारी है वह पहले कभी भी मुक्त नहीं हुआ । अनादि संसार का स्वरुप जैन आगमों में बताया गया है। कि संसारी जीव का अनादि निवास निगोद अवस्था में रहता है। फिर जैसे जैसे उसका विकास होता है वह पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रिय पर्याय से होता हुआ पंचेन्द्रिय तक विकसित होता है। यदि उसके परिणाम अत्यन्त अशुभ होंगे तो वह पुनः निगोद अवस्था को प्राप्त करता है। इस प्रकार अनादि निगोद और सादि निगोद अवस्थाएँ होती हैं इन्हें असांव्यवहारिक (नित्य) निगोद और सांव्यवहारिक (इतर) निगोद कहा गया है35 |
आत्मा स्थूल शरीर और सूक्ष्म कर्मशरीर से बद्ध मिलता है। इसका ज्ञान संवेदन, सुख, दुःख और यहाँ तक कि जीवनशक्ि भी शरीराधीन है। शरीर में विकार होने से ज्ञानतंतुओं में क्षीणता आ जाती हैं और स्मृतिभ्रंश तथा पागलपन आदि देखे जाते हैं । संसारी आत्मा शरीरबद्ध होकर ही अपनी गतिविधि करता है। यदि आत्मा शुद्ध होता तो शरीर सम्बन्ध का कोई कारण नहीं था । शरीर सम्बन्ध या पुनर्जन्म के कारण हैं राग, द्वेष, मोह और कषायादिभाव । शुद्ध आत्मा में ये विभाव परिणाम हो ही नहीं सकते। चूँकि आज ये विभाव और उनका फल शरीर सम्बन्ध प्रत्यक्ष से अनुभव में आ रहा है, अतः मानना होगा कि आज तक इनकी अशुद्ध परम्परा ही चली आई है।
भारतीय दर्शनों में यही एक एसा प्रश्न है, जिसका उत्तर विधिमुख से नहीं दिया जा सकता । ब्रह्म में अविद्या कब उत्पन्न
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चतुर्थ परिच्छेद... [185]
हुई? प्रकृति और पुरुष का संयोग कब हुआ ? आत्मा से शरीर सम्बन्ध कब हुआ ? इन सब प्रश्नो का एक मात्र उत्तर है- 'अनादि' से । किसी भी दर्शनने एसे समय की कल्पना नहीं की है जिस समय समग्र भाव से ये समस्त संयोग नष्ट होंगे और संसार समाप्त हो जायगा । व्यक्तिशः अमुक आत्माओं से पुद्गलसंसर्ग या प्रकृतिसंसर्ग का वह रुप समाप्त हो जाता है जिसके कारण उसे संसरण करना पडता है। इस प्रश्न का दूसरा उत्तर इस प्रकार दिया जा सकता है कि यदि
शुद्ध होते तो इनका संयोग ही नहीं हो सकता था। शुद्ध होने के बाद कोई एसा हेतु नहीं रह जाता जो प्रकृतिसंसर्ग, पुद्गल सम्बन्ध या अविद्योत्पत्ति होने दे। इसी के अनुसार यदि आत्मा शुद्ध होता तो कोई कारण उसके अशुद्ध होने का या शरीर सम्बन्ध का नहीं था। जब ये दो स्वतंत्रसत्तायुक्त द्रव्य हैं तब उनका संयोग चाहे वह कितना ही पुराना क्यों न हो, नष्ट किया जा सकता है और दोनों को पृथक-पृथक किया जा सकता है। उदाहरणार्थ खदान से सर्वप्रथम निकाले गये सोने में कीट आदि मैल कितना ही पुराना या असंख्य काल से लगा हुआ क्यों न हो, शोधक प्रयोगों से अवश्य पृथक् किया जा सकता है और सुवर्ण अपने शुद्ध रुप मे लाया जा सकता है। 36 तब यह निश्चय हो जाता है कि सोने का शुद्ध रुप यह है तथा मैल यह है। सारांश यह कि जीव और पुद्गल का बंध अनादि से है और वह बंध जीव के अपने राग-द्वेष आदि भावों के कारण उत्तरोत्तर बढता जाता है। जब ये रागादिभाव क्षीण होते हैं, तब वह बंध आत्मा में नये विभाव उत्पन्न नहीं कर सकता और धीरे-धीरे या एक झटके में ही समाप्त हो सकता है। चूँकि यह बंध दो स्वतंत्र द्रव्यों का है, अतः टूट सकता है या उस अवस्था में
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अ. रा. पृ. 2 / 287; 7/821
बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्याम् । कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः ।
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-तत्त्वार्थसूत्र 10/2-3
दग्धे बीजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्कुरः ।
कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवाङ्कुर ॥
32. सत्सु क्लेशेषु कर्माशयो विपाकारम्भी भवति न उच्छिन्नक्लेशमूलः । पातंजल योगदर्शन 2/13 पर व्यासभाष्य
- तत्त्वार्थसूत्र 10/7 पर तत्त्वार्थधिगम भाष्य
न्यायसूत्र 2/2/25
"न प्रवृत्तिः प्रतिसन्धानाय हीनक्लेशस्या।' न्याय सूत्र 4 / 1 /64 (क) द्विविधा जीवा सांव्यवहारिका असांव्यवहारिकाश्चेति । तत्र ये निगोदावस्थात उद्वृत्य पृथिवीकायिकादिभेदेषु वर्तन्ते ते लोकेषु दृष्टि पथमागताः सन्तः पृथिवीकायिका दिव्यवहारमनुपतन्तीति व्यवहारिका उच्यन्ते । ते च यद्यपि भूयोऽपि निगोदावस्थामुपयान्ति तथापि ते सांव्यवहारिका एव, संव्यवहारे पतितत्वात् । ये पुनरनादिकालादारभ्य निगोदावस्थामुपगता एवावतिष्ठन्ते ते व्यवहारपतातीतत्वादसांव्यवहारिकाः ।
- प्रज्ञापनाटीकायां सू. 234 (ख) गोलाश्च असंख्येयाः असंख्यनिगोदो गोलको भणितः । एकैकस्मिन् निगोदे अनन्तजीवा ज्ञातव्यां ||||| सिध्यन्ति यावन्तः खलु इह संव्यवहारजीवराशितः । आयान्ति अनादिवनस्पतिराशितस्तावन्तस्तस्मिन् ॥2॥
• अन्ययोगगव्यचच्छेदद्वात्रिंशिका, श्लोक 29 पर स्याद्वादमंजरी टीका में प्रज्ञापनासूत्र से उद्धृत
(ग) एकनिगोदशरीरे जीवा द्रव्यप्रमाणतो दृष्टा । सिद्धैरनन्तगुणाः सर्वेण व्यतीतकालेन ॥ -गोम्मटसार जीवकाण्ड 195
प्रथम कर्मग्रंथ गाथा - १ पर विवेचन पृ.5
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