Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
सम्यक् चारित्र
'चारित्र' शब्द 'चर् गतिभक्षणयोः धातु से इत्र प्रत्यय लगने पर निष्पन्न होता है 150 अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीमद्विजय
राजेन्द्र सूरीश्वरजीने "चारित्र" पद को समजाते हुए कहा है 151
(1) जिससे (जीव) अनिन्दित आचरण करता है,
(2) चारित्र मोहनीय कर्म का क्षयोपशम
(3) चरित्र
(4) अन्य जन्मों में उपार्जित आठों प्रकार के कर्मसंचय को दूर करने के लिए सर्व सावद्ययोग की निवृत्ति (5) सर्वविरतिमय क्रिया
( 6 )
मुमुक्षुओं के द्वारा जिसका आचरण करके निवृत्ति (मोक्ष) में पहुँचा जाय
(7) चारित्र मोहनीय कर्म के क्षय से प्रकट हुआ आत्मा का विरतिरुप परिणाम,
(8) जिससे मोक्ष प्राप्त किया जाय
(9) मूल उत्तर गुणों का समूह
(10) अज्ञान के द्वारा संचित कर्मों को दूर हटाना (स्वंय की आत्मा में सेकर्मों को रिक्त करना)
(11) सर्व संवर
(12) चारित्रमोहनीय कर्म के क्षय या क्षयोपशम से उत्पन्न आत्म (जीव) परिणाम
(13) सावद्ययोग निवृत्ति
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(14) बाह्य सदनुष्ठान
(15) सत्क्रिया - सच्चेष्ठा
को चारित्र कहते हैं।
अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने एवं जैनेन्द्र सिद्धात कोश में शुल्लक वर्णीने चारित्र की परिभाषाएँ निम्नानुसार दी गई है 152 |
1.
तत्त्वार्थ की प्रतीति के अनुसार क्रिया करना 'चरण' कहलाता है। अर्थात् मन, वचन, काया से शुभ कर्मों में प्रवृत्ति करना चरण है।
जिससे हित को प्राप्त करते हैं और अहित का निवारण करते हैं, उसको चारित्र कहते हैं । अथवा सज्जन जिसका आचरण करते हैं, उसको चारित्र कहते हैं, जिसके सामायिकादि भेद हैं।
3.
संसार की कारणभूत बाह्य और अन्तरङ्ग क्रियाओं से निवृत्त होना चारित्र है ।
4.
पुण्य व पाप दोनों का त्याग करना चारित्र है।
5.
योगियों के द्वारा प्रमाद से होनेवाले कर्मास्रव से रहित होना चारित्र है ।
6.
अपने में अर्थात् ज्ञान स्वभाव में ही निरन्तर चरना चारित्र है ।
7.
स्वरुप में रमण करना चारित्र है ।
8.
जीवस्वभाव में अवस्थित रहना ही चारित्र है, क्योंकि स्वरुप में चरण करने को चारित्र कहा है ।
9.
रागादि का परिहार करना 'चारित्र' है।
10. जो सदा प्रत्याख्यान करता है, प्रतिक्रमण करता है और आलोचना (प्रायश्चित का एक भेद) करता है, वह आत्मा वास्तव में चारित्र है ।
अनन्तर अकर्तव्य का त्याग करना चारित्र है ।
11. यह करने योग्य कार्य है- एसा ज्ञान होने के 12. हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन सेवा तथा परिग्रह इन पाँचों पापों की प्रणालियों से विरक्त होना चारित्र है । 13. समस्त पापयुक्त मन, वचन, काया के त्याग से संपूर्ण कषायों से रहित होने से निर्मल, परपदार्थों से विरक्ततारुप चारित्र है। 14. अशुभ कार्यो से निवृत होना और शुभ कार्यों में प्रवृत होना चारित्र है । व्यवहार नय से उसको व्रत, समिति और गुप्तिरुप
कहा है।
15. मन-वचन-काया से, कृत-कारित अनुमोदना के द्वारा जो पापरूप क्रियाओं का त्याग है उसको 'सम्यक् चारित्र' कहते हैं ।
2.
150. अ. रा.पू. 3/1141
151. अ.रा. पृ. 3/1141 पर उद्धृत
152. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 2/ 282 से 284
चतुर्थ परिच्छेद... [171]
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