Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
चतुर्थ परिच्छेद... [179]
इस प्रकार जैन दर्शन और अभिधान राजेन्द्र कोश की तरह अन्य भारतीय दर्शनों में भी मोक्ष की प्राप्ति हेतु त्रिविध साधना मार्ग का वर्णन किया गया है। उपसंहार:
इस शीर्षक में यह विमर्श प्रस्तुत किया गया है कि सुख का उपाय अर्थात् दुःख की अत्यन्तनिवृत्ति का मार्ग सम्यग्दर्शन-ज्ञान से युक्त सम्यक्चारित्र है। यह मार्ग जीव को परोन्मुखता से दूर करता हुआ स्वोन्मुख बनाता है और जब जीव पूर्ण स्वोन्मुख हो जाता है तब उसकी रागद्वेषमूलक प्रवृत्तियां समाप्त हो जाती हैं। परिणाम स्वरुप दुःख नष्ट हो जाता है।
किन्तु यहाँ प्रश्न यह आता है कि एसा कैसे सम्भव हो पाता है ? इस स्वोन्मुखता का, इसकी प्रक्रिया का सैद्धान्तिक आधार क्या है? इन सबका उतर पाने के लिए आगामी शीर्षक में चारित्र के सैद्धान्तिक पक्ष का अनुशीलन प्रस्तुत किया जा रहा है।
(तप
जगत में सद्धर्म का 'प्रारग' तप है.
सचेतन-आत्मा का 'भारा' तप है। 3. गुणीजनों के गुण की 'खान' तप है।
कर्म मूल को निर्मूल करने के लिये शस्त्ररुप 'कृपाण तप है। भवव्याधि को सर्वथा मिटाने के लिये 'रामबाण इलाज' तप है। आत्मा की 'इच्छा का निरोध' तप है।
जैनधर्म-जैनशासन की 'विजयपताकाध्वज' तप है। 8. जैनधर्म यानी जैनशासन में सद्ज्ञान यह धूपसली, दर्शन यह सौरभ-सुगन्ध तथा संयम-तप यह
धूपसळी के जल जाने से उत्पन्न होती हुई फोरम है। 9. विश्व में स्व या पर के श्रेय का 'प्रतीक' तप है। 10. कर्म निर्जरा का 'अनुपम साधन' तप है। 11 . देह की तथा आहार की ममता को समाप्त करने के लिये 'महान् शास' तप है। 12. उद्यापन यानी उजमणां तपधर्म का ही होता है, इसलिये जगत में 'श्रेष्ठ-उत्तम' तप है। 13. शुभ साधना-आराधना का 'बीज-ओज' तप है। 14. कर्म-मल को दूर करने के लिये 'जल तुल्य' अर्थात् पानी के समान तप है। 15. विश्वभर का 'महान् औषध' तप है। 16. जगत में सूर्य के समान अज्ञानरुपी अंधकार को शमन करने से ज्ञानरुपी नेत्र को निर्मल करने
वाला तथा तच्वातत्त्व की जानकारी दिखाने वाला तप है।
सम्यग्दृष्टियों में 'शुभ शिरोमणि' तप है। 18. आलम में अपूर्व कोटि का धर्म तप है। 19. उत्कृष्ट मंगलरुप तथा भावमंगलरुप भी तप है। 20. कर्मरुपी वृक्ष को मूल से उखाडनेवाले 'गजराज-हाथी' के समान तप है। 21. इन्द्रियरुपी उन्मत्त अश्वों को काबू में अर्थात् वश में रखने के लिये 'लगाम' के समान तप है। 2. अपूर्व 'कल्पवृक्ष' के समान तप है। (तप का मूल संतोष है, देवेन्द्र और नरेन्द्र आदि की पदवी तपरुपी
कल्पवृक्ष के पुष्प-फूल है तथा मोक्ष-प्राप्ति, तपरुपी कल्प-वृक्ष का फल है।) 23. समस्त लक्ष्मी का बिना सांकल का 'बन्धन' तप है। 24. पापरुपी प्रेत-भूत को दूर करने के लिये अक्षर रहित 'रक्षामन्त्र' तप है। 25. पूर्व उपार्जन किये हुए कर्मरुपी पर्वत को भेदने के लिये 'वज्र' के समान तप है। 26. कामदेवरुपी दावानल की ज्वाला समूह को बुस्काने लिये 'जल-पानी' के तुल्य तप है। 7. लब्धि और लक्ष्मीरुपी लता-वेलडी का 'मूल' तप है। 28. विघ्नरुपी तिमिर-समूह का विनाश करने में दिन समान तप है।
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