Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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[164]... चतुर्थ परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
1. प्रवचनिक, 2. धर्मकथाकार, 3. वादी,
2. संवेग - संवेग का अर्थ है मोक्ष की अभिलाषा। सम्यग्दृष्टि 4. नैमित्तिक 5. तपस्वी, 6. विद्यावान्, जीव राजा और इन्द्र के वैषयिक सुख को भी दुःखमिश्रित होने के 7. सिद्धिप्राप्त और 8. कवि।
कारण दुःखरुप मानते हैं, वे मोक्षसुख को ही एकमात्र सुख रुप मानते 3. भक्ति:
हैं। कहा भी है - सम्यकत्वी मनुष्य इन्द्र के सुख को भाव से अभिधान राजेन्द्र कोश में जिनेश्वर परमात्मा की सेवा, पूजा,
दुःख मानता है और संवेग से मोक्ष के बिना और किसी वस्तु की आङ्गी, भव्य महोत्सव, जाप, आराधना, गुर्वादि के सम्मुखगमन,
प्रार्थना नहीं करता, वही संवेगवान् होता है। अभ्युत्थान, आसन प्रदान, पर्युपासना, अञ्जलिबद्ध प्रणाम, अनुगमन
3. निर्वेद - निर्वेद शब्द का अर्थ है संसार से उदासीनता, वैराग्य, आदि उचित उपचार द्वारा श्री जिनेश्वर द्वारा स्थापित चतुर्विध संङ्ग की सेवा, विनयादि करना 'भक्ति' है। साधु, साध्वी, श्रावक और
अनासक्ति । सांसारिक प्रवृत्तियों के प्रति उदासीन रखना, क्योंकि उसके श्राविकारुप चतुर्विध धर्मसंघ 'शासन' कहलाता है। जिन शासन के
अभाव में साधना के मार्ग पर चलना संभव नहीं होता। वस्तुतः आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, नवदीक्षित, रुग्ण (रोगी), कुल, गण, निर्वेद निष्काम-भावना या अनासक्त दृष्टि के विकास का आवश्यक संघ, साधु, ज्ञानी-आदि संघस्थ व्यक्तियों की सेवा करना; वैयावृत्य अंग है। (वैयावच्च) करना, उनको आहार, पानी, वस्त्र, पात्र, उपाश्रय (वसति
4. अनुकम्पा - दुःखी जीवों पर दया करने की इच्छा अनुकम्पा या स्थान), पट्ट (पाट), चौकी, आसन आदि धर्म-साधना में आवश्यक
है। पक्षपात रहित होकर दुःखी जनों के दुःख को मिटाने की भावना उपकरण देना उनकी औषध-भेषज्य आदि के द्वारा सेवा करना, विहार
ही वस्तुतः अनुकम्पा है। अपनी शक्ति के अनुसार दुःखी व्यक्ति में कठिन मार्ग में उनको सहायक बनना, चतुर्विध सङ्घ पर छाये
के दुःख का प्रतिकार करके उसका दु:ख दूर करना 'द्रव्य अनुकम्पा' हुए विघ्नों या उपसर्गो का निवारण करना - ये सभी सेवा-भक्ति के विभिन्न प्रकार है। इनसे शासन की शोभा बढती है, इसीलिए
है। मन से दुःखी के प्रति कोमल हृदय रखकर दया से परिपूर्ण "भक्ति" को सम्यक्त्व का तीसरा भूषण बताया है। जिनभक्ति से
होना ‘भाव अनुकम्पा' है। कर्मक्षय, आरोग्य, बोधिलाभ एवं समाधिमरण की प्राप्ति होती है। 5. आस्तिक्य - आत्मा है, आत्मा को अपनी शुभाशुभ प्रवृत्तियों (भक्ति का विशेष वर्णन आगे प. 4 ख 3 में किया जायेगा) के अनुसार फलस्वरुप मिलने वाला देवलोक, नरक गति, परलोक 4. जिनशासन में कुशलता:
आदि है। संसार में प्राणियों की विभिन्नता का कारण कर्म है, धर्म के सिद्धान्तों को समझाने तथा धार्मिकों पर आई हुई कर्म फल है, इस प्रकार जो मानता है, वह आस्तिक है। जैन उलझनों को सुलझाने, समस्या हल करने की कुशलता भी अनेक दर्शन के अनुसार जो पुण्य-पाप, पुनर्जन्म, कर्म-सिद्धान्त और आत्मा व्यक्तियों को धर्मसंघ में स्थिर रखती है; संघ सेवा के लिए प्रेरित
के अस्तित्व को स्वीकार करता है, वह आस्तिक है। जिनेश्वरोंने करती है। अतः कुशलता सम्यक्त्व का भूषण है।
जो कहा है, वही सत्य है और शंकारहित है - एसे शुभ परिणामो 5. तीर्थ सेवा:
से युक्त और शंका, कांक्षा आदि दोषों से रहित हो, वही सम्यक्त्वी नदी के घाट की तरह संसार से सुखपूर्वक पार उतरने के
माना जाता है। लिए तीर्थ होता है। यह तीर्थ दो प्रकार का होता है- जिस भूमि पर तीर्थंकरों का जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण हुआ हो, उस
सम्यक्त्व की छ: जयणा:स्थान को लोक प्रचलित भाषा में 'तीर्थ' कहा जाता है, इसे द्रव्यतीर्थ
अन्य धर्मी के धर्म गुरु, अन्य धर्मियों के देव, और अन्य कहते हैं। और भावतीर्थ साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रुप चतुर्विध धर्मियों के अधिकार में रहे जिन चैत्य (जिन मंदिर) और जिन प्रतिमा संघ श्रमण संघ होता है। एसे तीर्थ की सेवा करना तीर्थ सेवा है । को (1) वंदन (2) नमन (3) आलाप (बिना बुलाये बोलना) और (इस का विशेष वर्णन आगे प. 4 ख 3 में किया जायेगा) (4) संलाप (बार-बार बोलना) (5) दान (6) प्रदान (वारंवार दान, सम्यक्त्व के पाँच लक्षण:
सत्कारादि) - इन छ: प्रकार के व्यवहार का त्याग करना, सम्यक्त्व अभिधान राजेन्द्र कोश में सम्यक्त्व के पाँच अंगों का विधान ___ की "छ: जयणा" कहलाती है। है। सम्यक्त्व के पाँच अंग इस प्रकार है -
यद्यपि अनिवार्य कारण उपस्थित होने पर इन में जयणा 1. सम - सम्यक्त्व का पहला लक्षण है सम। प्राकृत भाषा में (छूट) भी होती है। वह जयणा अनेक प्रकार से है। 'सम' शब्द के संस्कृत भाषा में तीन रुप होते हैं - 1. सम, 2. सम्यक्त्व के छः आगार:शम, 3. श्रम । 'सम' शब्द के दो अर्थ है, पहले अर्थ में सभी प्राणियों
सम्यक्त्वी जीव यद्यपी मिथ्यादृष्टि देव-गुरु को वंदन नहीं को अपने समान समझना। इस अर्थ में यह 'आत्मवत् सर्वभूतेषु'
करें तथा अन्य धर्म या अन्य धर्मी के सेवा-पूजा भी नहीं करें तथापि के सिद्धान्त की स्थापना करता है जो अहिंसा का आधार है। दूसरे
(1) राजा (2) गण (3) बल (4) देव (5) गुरु और (6) वृत्ति अर्थ में इसे वित्तवृत्ति का समभाव कहा जा सकता है अर्थात् सुखदुःख, हानि-लाभ एवं अनुकूल-प्रतिकूल दोनों स्थितियों में समभाव 67. अ.रा., पृ. 5/1365-66, 4/1500 रखना, चित्त को विचलित नहीं होने देना। 'शम' इसका अर्थ होता 68. अ.रा., पृ. 4/2242,2245,2314 है शांत करना अर्थात् वासनाओं को शांत करना, श्रम इसका अर्थ
69. अ.रा., पृ. 7/484, 501, 502; सम्यक्त्व सप्ततिका - 43 से 45
70. अ.रा., पृ. 7/484: सम्यक्त्व सप्ततिका-46 से 50 है - सम्यक् 'प्रयास' या पुरुषार्थ ।
71 अ.रा., पृ. 7/484; सम्यक्त्वसप्ततिका-51 से 54
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