Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
चतुर्थ परिच्छेद... [149]
1. जैनधर्म का उद्देश्य और लक्ष्य
'धर्म' (धम्म) शब्द धृ धातु से 'मन्' प्रत्यय जोडने पर बनता है। अभिधान राजेन्द्र कोश में 'धर्म' शब्द मुख्यतया तीन अर्थो में प्रयुक्त है
1. वत्थुसहावो धम्मो (वस्तुस्वभावो धर्मः) - वस्तु का स्वभाव धर्म है। 2. दंसणमूलो धम्मो (दर्शनमूलो धर्मः) - धर्म दर्शनमूलक है। 3. चारित्तं खलु धम्मो (चारित्रं खलु धर्मः) - चारित्र ही वास्तविक धर्म है।
वस्तुस्वभावरुप धर्म को बताते हुए अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा है - धर्म का एक अर्थ स्वभाव होता है। धर्म का एक अन्य अर्थ धर्मास्तिकाय होता है, धर्म का अर्थ धर्मास्तिकाय का धर्म (गति सहयाक स्वभाव) होता है', धर्म का अर्थ जीवादि द्रव्यों का स्वभाव होता है, धर्म का अर्थ द्रव्य के सहभावी और क्रमभावी पर्याय भी है तथा परिणाम, स्वभाव और शक्ति भी धर्म के पर्याय हैं। मर्यादा के अर्थ में 'धर्म' शब्द का अर्थ धर्म, स्थिति, समय और व्यवस्था भी होता है।
'धर्म' की आध्यात्मिक व्याख्या करते हुए अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा है - "जो दुर्गति (पतन के गड़े) में पड़ते हुए प्राणियों को बचाता है और सद्गति ( उन्नति के स्थान) में पहुँचाता है, वह 'धर्म' कहलाता है। आचार्यश्रीने द्रव्य के अपने स्वभाव / . स्वरुप को धर्म कहा है।
'जैनधर्म' शब्द के घटक 'धर्म' शब्द का अर्थ आचरणरुप धर्म है। इसी में दर्शनमूलकता और वस्तुस्वभावता (जीव की) निहित
जहाँ दूसरे समस्त धार्मिक लोगों के द्वारा दूसरों को गठने की बुद्धि से जो भी ध्यान, अध्ययनादि किया जाय अथवा जैनधर्म के साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविकाओं के द्वारा अविधि या अनुपयोग (मन, वचन, काया की एकाग्रता रहित) से जो भी चैत्यवंदन, प्रतिक्रमण स्वाध्यायादि अनुष्ठान किया जाय अथवा पार्श्वस्थादि (जो दर्शन-ज्ञान-चारित्र से दूर रहते हैं, चारित्र में सबल दोष लगाते हैं, गुणी संयमियों के दोष देखते हैं, परंतु मुनिमार्ग
धर्म के प्रकार :धर्म के दो प्रकार - अभिधान राजेन्द्र कोश में 1. द्रव्य धर्म और 2. भाव धर्म बताया है। धर्म के तीन प्रकार - जैनेन्द्रसिद्धांतकोश में धर्म तीन प्रकार से बाताया गया है - 1. अस्तित्व धर्म 2. श्रुत धर्म 3. चारित्र धर्म ।12 धर्म के चार प्रकार - निक्षेप द्वार से धर्म का वर्णन करते हुए आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने धर्म के चार प्रकार दर्शाये हैं - 1. नाम धर्म 2. स्थापना धर्म 3. द्रव्य धर्म 4. भाव धर्म ।। नाम धर्म - कोई सचेतन पुरुष का 'धर्म' (धर्मदास, धर्चन्द्र, धर्मकुमार, धर्म राजा इत्यादि) ऐसा नामकरण किया जाय, वह 'नाम धर्म' है।। स्थापना धर्म - मंदिर, मूर्ति, उपाश्रय, पौषधशाला; नवकारवाली, शास्त्र, चरवला, आसन, ओधा, मुखपट्टिका, पात्र आदि धार्मिक उपकरण, देव-गुरु के चरणचिह्न (पगलिया), चित्र आदि, स्थापनाचार्य या अन्य जिस किसी वस्तु की धर्मायतन के रुप में स्थापना की जाय वह 'स्थापना धर्म' कहलाता है।15 द्रव्य धर्म - जीवास्तिकाय आदि षड् द्रव्यों का उत्पादन-व्ययध्रुव रुप धर्म ।16 अथवा पदार्थ (द्रव्य) का तिक्त, मधुरादि रस भी द्रव्यधर्म है। द्रव्यधर्म तीन प्रकार से है1. अस्तिकाय धर्म - जीवास्तिकायादि षड् द्रव्यों का अपना-अपना स्वभाव; जैसे-धर्मास्तिकाय का गतिसहायक स्वभावादि अस्तिकाय धर्म कहलाता है। 2. प्रचार धर्म - इन्द्रिय विषयक धर्म, प्रकर्षगमन आदि ।। 3. विषय धर्म - प्राणियों को विषाद पहुँचाना, रुप-रागादि में प्रवृत करना, भोगोपभोग में आसक्त रहना, आदि विषयधर्म है।20 जीव की अनादिकालीन प्रवृत्ति होने से इसे धर्म कहा गया है (भावधर्म की अपेक्षा से नहीं)। सचित शरीर के उपयोग रुप स्वभाव को भी द्रव्य धर्म कहते हैं। बिना भाव के धार्मिक अनुष्ठान । धर्मक्रिया भी द्रव्यधर्म' है।
1. अ.रा.पृ. 4/2663,2665 2. अ.रा.पृ. 4/2663; जैनेन्द्रसिद्धांत कोश, पृ. 2/464
नवतत्त्व प्रकरण, गाथा-8; भगवती सूत्र 2/2; अनुयोगद्वारसूत्र समवयांग | स.; स्थानांग 2/1
वही 5. समवयांग, 10 स., स्थानांग, 9 वाँ ठाणां 6. स्थानांग, 2 ठा. | उ. 7. स्थानांग, 9 वाँ ठाणां 8. आचारांग चूर्णि, 2 अध्ययन प्रतिमाशतक सूत्र सटीक; अ.रा. पृ. 4/22665 9. दुर्गतिप्रसृतान् जन्तून, यस्माद्वारयते पुनः ।
धत्ते चैतान् शुभे स्थाने, तस्माद् धर्म इति स्मृतः ॥ अ.रा. पृ. 2/773, एवं
पृ. 4/2665 10. अ.रा.पृ. 4/2667 11. अ.रा.पृ. 4/2663, 2667 12. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 2, पृ. 467; मूलाचार-557 13. अ.रा.पृ. 4/2667, 68, सूत्रकृतांग नियुक्ति-2/39 14. अ.रा.पृ. 4/2663, 2668 15. अ.रा.पृ. 4/2668 16. अ.रा.पृ. 4/2667, 2668 17. अ.रा.पृ. 4/2667 18. अ.रा.पृ. 4/2668, 2718 19. अ.रा.पृ. 4/2668 20. अ.रा.पृ. 4/2668 21. अ.रा.पृ. 4/2668 22. अ.रा.पृ. 4/2671, 2667
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