Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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[4]... प्रथम परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन एवं अन्य शिथिलाचारी यति इत्र आदि पदार्थ ग्रहण करते थे। श्रीपूज्य धरणेन्द्रसूरि आदि समस्त यतिगण से अनुमत करवाया।42 कल्पसूत्रार्थप्रबोधिनी के अनुसार वि.सं.1923 के पर्युषण पर्व में तेलाधर क्रियोद्धार का बीजारोपण - के दिन शिथिलाचार को दूर करने के लिये मुनि रत्नविजय ने तत्काल
श्री राजेन्द्रसूरि रास (पूर्वाद्ध) के अनुसार दीक्षा लेकर वि.सं. ही मुनि प्रमोदरुचि एवं धनविजय के साथ घाणेराव से विहार कर
1906 में उज्जैन में पधारे तब गुरुमुख से उत्तराध्ययन सूत्र के अन्तर्गत नाडोल होते हुए आहोर शहर आकर अपने गुरु श्री प्रमोदसूरिजी से।
भृगु पुरोहित के पुत्रों की कथा सुनकर मुनि रत्नविजयजी के भावों संपर्क किया और बीती घटना की जानकारी दी।35
में वैराग्य वृद्धि हुई और इस प्रकार आप 'क्रियोद्धार' करने के विषय इसके साथ अनेक अन्य विद्वान् यतियों ने भी श्री पूज्य में चिंतन करने लगेश्री प्रमोदसूरिजी को शिथिलाचार का उपचार करने हेतु लिखा। तब
"इम ध्यावे वैरागियो कां, चिंते क्रिया उद्धार । मुनि रत्नविजयजी ने आहोर में अट्ठम तप करके मौन होकर 'नमस्कार
जोवे सद्गुरु वाटडी हो, संजम खप करनार ।। महामंत्र' की एकान्त में आराधना की। आराधना के पश्चात् श्री प्रमोदसूरिजी
श्री राजेन्द्रसूरि रास के अनुसार पंन्यास श्रीरत्नविजयजी जब ने रत्नवजिय से कहा- "रत्न !..तुमने क्रियोद्धार करने का निश्चय
35. जीवनप्रभा पृ. 15, 16, राजेन्द्रगुणमञ्चरी, पृ. 23 से 26, श्री राजेन्द्रसूरि किया है सो योग्य है व मुझे प्रसन्नता भी है, परन्तु अभी कुछ समय
का रास पत्रांक 33 से 37 ठहये। पहले इन श्रीपूज्यों और यतियों से त्रस्त जनता को मार्ग दिखाओ, 36. श्री राजेन्द्रसूरि का रास पृ. 36, 38; विरल विभूति, पृ. 37, 38 फिर क्रियोद्धार करो।"
37. श्री राजेन्द्र सूरि का रास पृ. 38; जीवनप्रभा प. 16: श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी, तत्पश्चात् अपने गुरुदेव प्रमोदसूरीजी से विचार विमर्श कर
पृ. 26, 27 मुनि रत्नविजय ने अपनी कार्य प्रणाली निश्चित की।
श्री कल्पसूत्रार्थप्रबोधिनी, जीवन परिचय, पृ. 6
श्री राजेन्द्रगुणमञ्चरी पृ. 27; श्री राजेन्द्र सूरि का रास, पृ. 38, 39; जीवनप्रभा वि.सं. 1923 में इत्र विषयक विवाद के समय ही प्रमोदसूरि
पृ.16 जी ने मुनि रत्नविजय को आचार्य पद एवं श्रीपूज्य पदवी देना निश्चित
40. श्री राजेन्द्रगुणमञ्चरी पृ. 28; श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 39; जीवनप्रभा कर लिया था। 'श्री राजेन्द्र गुणमंजरी' आदि में उल्लेख है कि वि.सं.
पृ.16, 17 1924, वैशाख सुदि पंचमी बुधवार को श्री प्रमोदसूरिजी ने 41. कलमनामा निजपरम्परागत सूरिमंत्रादि प्रदान करके श्रीसंघ आहोर द्वारा किये
(1) पेली : प्रतिक्रमण दोय टंक को करणो, श्रावक-साधु समेत
करणा-करावणा, पच्चक्खाण-वखाण सदा थापनाजी गये महोत्सव में मुनि श्री रत्नविजयजी को आचार्य पद एवं श्रीपूज्य
की पडिलेहण करणा, उपकरण 14 सिवाय गेणा तथा पद प्रदान किया और मुनि रत्नविजय का नाम 'श्रीमद्विजय
मादलिया जंतर पास राखणां नहीं, श्री देहेरेजी नित राजेन्द्रसूरि' रखा गया। आहोर के ठाकुर श्री यशवन्तसिंहजी ने
जाणा, सवारी में बैठणा नहीं, पैदल जाणा। परम्परानुसार श्रीपूज्य - आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि को रजतावृत्त
(2) दूजी : घोडा तथा गाडी ऊपर नहीं बैठणा, सवारी खरच नहीं चामर, छत्र, पालकी, स्वर्णमण्डित रजतदण्ड, सूर्यमुखी, चंद्रमुखी एवं
राखणा।
(3) तीजी : आयुध नहीं रखाणा. तथा गृहस्थी के पास आयध, दुशाला (कांबली) आदि भेंट दिये 37 मुनि यतीन्द्रविजय लिखित
गेणा रुपाला देखो तो उनके हाथ नहीं लगाणा, तमंचा 'श्रीकल्पसूत्रार्थप्रबोधिनीगतजीवनम्' में इस 'आचार्य पद प्रदान समारोह'
शस्त्र नाम नहीं राखणा। का वर्णन निम्नानुसार हैं
(4) चोथी : लुगाईयों सुं एकान्त बेठ बात नहीं करणा, वेश्या तथा "श्री गुरुरपि....योग्यसमयं विमश्य
नपुंसक वांके पास नहीं बैठणा, उणाने नहीं राखणा। श्रीसंघाऽऽराब्धमहामहेन वैक्रमे 1924 वैशाखसित-पञ्चमी बुधवासरे
(5) पांचमी : जो साधु (यति) तमाखु तथा गांजा भांग पीवे, पंन्यासरत्नविजयाय निजपरम्परागतसूरिमंत्रं प्रदाय 'श्रीविजय
रात्रिभोजन करे, कांदा-लसण खावे, लंपटी
अपच्चक्खाणी होवे-एसा गुण का साधु (यति) होय राजेन्द्रसूरिः' इत्याख्यां दत्वा श्रीपूज्यपदं ददिवान् । तदैव ठक्कुरः
तो पास राखणा नहीं। श्रीयशवन्तसिंहः श्रीपूज्यायाऽस्मै स्वर्णयष्टि-चामर-च्छत्र
(6) छट्ठी : सचित लीलोतरी, काचा पाणी, वनस्पति कुं विणासणा याप्यमान-सूर्यमुखी-चन्द्रमुखी-महावस्त्रप्रमुखमार्पिपच्च ।"38
नहीं, काटणा नहीं, दांतण करणा नहीं, तेल फुलेल इस प्रकार बालक रत्नराज क्रमश: मुनि रत्नविजय, पंन्यास
मालस करावणा नहीं, तालाब कुवा बावडी में हाथ रत्नविजय और अब श्रीपूज्य एवं आचार्य पद ग्रहण करने के बाद
धोवणा नहीं। आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि नाम से पहचाना जाने लगा। आचार्य
(7) सातमी : सिपाई खरच में आदमी नोकर जादा राखणा नहीं,
जीवहिंसा करे ऐसा नौकर राखणा नहीं। पद ग्रहण करके आप मारवाड से मेवाड की ओर विहार कर शंभूगढ
(8) आठमी : गृहस्थी से तकरार करके खमासणा प्रमुख बदले रुपिया पधारे। वहाँ के राणाजी के कामदार फतेहसागरजी ने पुन: पाटोत्सव
दबायने लेणा नहीं। किया, और आचार्यश्री को शाल (कामली) छडी, चवर आदि भेट
(9) नवमी : और किसीको सद्दहणा देणा, श्रावकियाने उपदेशकिये।
शुद्ध परुवणा देणी, ऐसी परुवणा देनी नहीं जणी में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरिने शम्भूगढ से विहार करते
उलटो अणा को समकित बिगडे ऐसो परुवणो नहीं,
और रात के बारे जावे नहीं और चोपड, सतरंज, गंजिफा हुए वि.सं. 1924 का चातुर्मास जावरा में किया।40 आचार्य पद पर
वगेरा खेल रमत कहीं खेले नहीं, केश लांबा वधावे आरोहण के पश्चात् आपका यह प्रथम चातुर्मास था। जावरा चातुर्मास
नहीं, फारखी पेरे नहीं और शास्त्र की गाथा 500 के बाद विक्रम संवत् 1924 के माघ सुदि 7 को आपने नौकलमी
रोज सज्झाय करणा। "कलमनामा"1 बनाकर श्री पूज्य धरणेन्द्रसूरि द्वारा भेजे गये मध्यस्थ ___42. श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 40, 41, 42; जीवनप्रभा पृ. 18; श्री मोतीविजय और सिद्धिकुशलविजय -इन दो यतियों के साथ भेजकर
राजेन्द्रगुणमञ्चरी पृ. 30 से 34
43. श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only
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