Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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[124]... तृतीय परिच्छेद
1.
5.
6.
ऐन्द्रिय पंचेन्द्रियजन्य ज्ञान
7.
सांव्यवहारिक
8.
मानस
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देशावधि
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
प्रमाण
स्मृति
आगम
(श्रुत)
दर्शन के उद्भव और विकास का मूल जिज्ञासा है। जिज्ञास्य पदार्थों में लौकिक एवं अलौकिक जगत में उपलब्ध पदार्थो का तात्विक विश्लेषण करने के साथ ही जीव के चरम लक्ष्य और उसके उपाय को भी समाहित किया गया हैं। यद्यपि भिन्न-भिन्न दार्शनिकों ने भिन्न-भिन्न मत व्यक्त किये हैं किन्तु 'ऋते ज्ञानान्न मुक्ति: ' यह सिद्धान्त किसी न किसी रुप में सभी भारतीय मनीषियों में स्वीकृत हैं । जैन सिद्धान्त में सम्यग्दर्शनपूर्वक के सम्यग्ज्ञान को कार्यकारी बताया गया हैं। सम्यग्ज्ञान का अभिप्राय आत्मा के ज्ञान गुण के कारण किसी भी अंश से लौकिक एवं अलौकिक पदार्थों का सम्यग् निश्यच हैं अर्थात् जैन सिद्धान्त में आत्मा के ज्ञान गुण को ही प्रमाणभूत माना गया हैं इसलिये मोक्षमार्ग प्रकरण में यह स्पष्ट किया गया हैं कि मोक्ष का सक्रिय उपाय सम्यग्ज्ञानपूर्वक ही होता हैं । 2 जैन सिद्धान्त में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के साथ ही सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति होती हैं । किन्तु उसमें सम्यग्दर्शन का स्थान प्रथम हैं। दूसरे क्रम पर सम्यग्ज्ञान है। सर्वदेश ज्ञान और एक देश ज्ञान की अपेक्षा से ज्ञान की तरतम अवस्थाएँ अनेक होती हैं किन्तु उन्हें अध्ययन की दृष्टि से पाँच वर्गो में रखा गया मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यव, केवल 13 सम्यग्विशिष्ट ये कोटियां प्रमाणभूत हैं।
प्रत्यक्ष
दशवैकालिक मूल 4/10
तिलोयपण्णत्ती 1/83
पारमार्थिक
अवधिज्ञान मनः पर्यवज्ञान
सर्वावधि ऋजुमति
इसी सिद्धान्त को भिन्न-भिन्न जैन दार्शनिकों ने अपने-अपने शब्दों में कहा है। किसी ने सम्यगज्ञान को प्रमाण कहा है तो किसी ने 'सम्यगनेकान्त' को प्रमाण कहा हैं।' इसी तथ्य को और अधिक स्पष्ट करते हुए अभिधान राजेन्द्र कोश में कहा गया हैं कि जो ज्ञान 'स्व' और 'पर' का निश्चयात्मक ज्ञान है, वह 'प्रमाण' हैं।' क्योंकि जब तक 'स्व' और 'पर' के भेदपूर्वक ज्ञान नहीं होता तब तक हेयउपादेयत्वपूर्वक का विचार और प्रवृत्ति निवृत्ति का निर्धारण नहीं हो सकता। जो यहाँ पर 'स्व' और 'पर' शब्दों का प्रयोग किया गया हैं। वह स्वात्म द्रव्य की अपेक्षा परात्म द्रव्य को भी परत्वेन ही ग्रहण करता हैं। इस प्रकार 'पर' शब्द स्वात्मद्रव्य से भिन्न सभी अन्य चेतन पदार्थ 'पर' शब्द से अभिहित हैं। वह ज्ञायक आत्माओं के स्व- द्रव्य से भिन्न सभी 'पर' द्रव्यों को यथावस्थित स्वरुप से निश्चयात्मक ज्ञान करानेवाला तत्तदधिष्ठित सम्यग्ज्ञान 'प्रमाण' कहा गया हैं अर्थात् अन्य आत्मा के द्वारा गृहीत निश्चयात्मक ज्ञान का साधनभूत प्रमाण तदितर ( उससे भिन्न) आत्मा के लिए कार्यकारी न होने से प्रमाणभूत नहीं ठहरता । "
आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने 'स्व-पर व्यवसायिज्ञानं प्रमाणम्' -सूत्र को उद्धृत करते हुए यह स्पष्ट किया है कि इस सूत्र
संज्ञा तर्क (चिन्ता)
(प्रत्यभिज्ञा)
मुण्डकोपनिषद्
2. पढमं नाणं तो दया।
3 तत्वार्थसूत्र - 1/9; अ.रा. पृ. 4/1938
4.
तत्प्रमाणे । तत्वार्थसूत्र - 1/10
'सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्' ।
तत्वार्थवार्तिक 1/86
स्वपरव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम् । अ.रा. पृ. 5/442; सूत्रकृतांग 1/12/2
स्वात्मा ज्ञानस्य स्वरुपम् परः स्वस्मादन्यः, अर्थ इति यावत् । तौ विशेषेण यथाऽवस्थितस्वरुपेण, अवस्यति निश्चिनोतीत्येवंशीलं यत् तत् स्वपरव्यवसायि । -
अ. रा. पृ. 5/443
केवलज्ञान
विपुलमति
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अभिनिबोध
(अनुमान)
परोक्ष
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