Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
तृतीय परिच्छेद... [131]
"यहाँ पर द्रव्यार्थिक नय निश्चय नय का और पर्यायार्थिक नय व्यवहार नय का हेतु है - एसा कहने के स्थान पर यह भी कहा जा सकता है कि 'द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक' -दोनों ही नय निश्चय-व्यवहार दोनों नयों के हेतु हैं। क्योंकि द्रव्याथिक के अनेक भेदों को अध्यात्म में व्यवहार कहा जाता है तथा पर्यायार्थिक के अनेक भेदों का कहीं-कहीं निश्चय के रुप में भी कथन मिल जायेगा 163
डॉ. हुकमचन्द भारिल्लने 'आलाप पद्धति'64 के कथन के आधार पर इन दोनों नय युगलों को अलग-अलग शैली के नय युगल बताया हैं
(1) आगम पद्धति के नय - द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक (2) अध्यात्म पद्धति के नय - निश्चय और व्यवहार
डो. हुकमचन्द भारिल्ल ने 'द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र' के आधार पर नय युगलों में हेतु-हेतुक संबन्ध बताकर आगम को अध्यात्म का हेतु बताते हुए उनमें हेतु-हेतुक संबन्ध बताया हैं। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय को तो निश्चय-व्यवहार के हेतु होने से मूल नय कहा गया हैं।
हमने यहाँ सभी मतों का संग्रह करके निम्न अभिलेखों के द्वारा नयों के वर्गीकरण को प्रस्तुत करने का प्रयास किया हैं
63. जिनवरस्य नयचक्रम्, पृ. 27, 28 - ले. डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल 64. पुनरप्यध्यात्मभाषया नया उच्यन्ते । तावन्मूलनयौ द्वौ, निश्चयो व्यवहारश्च । - आलापपद्धति, पृ. 228 65. विशेष विवरण हेतु 'जिनवरस्य नयचक्रम्' - ले. डॉ. हुमकचन्द भारिल्ल का अवलोकन करें ।
(शास्त्र परलोकविधौ शास्त्रात्, प्रायो नान्यदपेक्षते ।
आसन्नभव्यो मतिमान्, श्रद्धाधनसमन्वितः॥1॥ उपदेश विनाऽप्यर्थ-कामौ प्रति पटुर्जनः।
धर्मस्तु न विना शास्त्रा-दिति तत्रादरो हितः ॥2॥ अर्थाऽऽदावविधानेऽपि, तदभावः परं नृणाम्।
धर्मेऽविधान्तोऽनर्थः, क्रियोदाहरणात्परः । ॥ तस्मात्सदैव धर्मार्थी,शास्त्रयत्नः प्रशस्यते ।
लोके मोहान्धकारेऽस्मिन्, शास्त्राऽऽलोक प्रवर्तकः ।। पापामयौषधं शास्त्र, शास्त्रे पुण्यनिबन्धनम्।
चखं सर्वत्रगं शास्त्र,शास्त्र सर्वार्थसाधनम् ॥5॥ न यस्य भक्तिरेतस्मि-स्तस्य धर्मक्रियाऽपि हि।
अन्धप्रेक्षाक्रिया तुल्या, कर्मदोषादसत्फला ॥6॥ यः श्राद्धो मन्यते मान्या-नहङ्कारविवर्जितः।
गुणरागी महाभाग स्तस्य धर्मक्रिया परा ॥ यस्य त्वनादरः शास्त्रे, तस्य श्रद्धादयो गुणाः।
उन्मत्तगुणतुल्यत्वा-न प्रशंसाऽऽस्पदं सताम् ॥8॥ मलिनस्य यथाऽत्यन्तं, जलं वस्त्रस्य शोधनम्।
अन्तःकरणरत्नस्य, तथा शास्त्रं विदुर्बुधाः ॥७॥ शास्त्रभक्तिर्जगद्वन्धै-र्मुक्तिदूती परोदिता। अत्रैवेयमतो न्याय्या, तत्प्राप्त्यासन्न भावतः 10॥
-अ.रा.पृ.4/2720
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