Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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[116]... तृतीय परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
आता (स्त्री) आत्मन् (पुं.)2/187
'आता' शब्द 'आत्मन्' के अर्थ में है। जैनदर्शन अनेक जीवों की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार करता है। उसी के आश्रय से 'आता' शब्द के अन्तर्गत सभी आत्माओं की समानता अर्थात् एकविधत्व का प्रतिपादन भी किया जाता है। अभिधानराजेन्द्र में आत्मैकविधत्वसिद्धांत को प्रथम क्रम पर लिया गया है। यह एकविधत्व स्वभावसाम्य की अपेक्षा से हैं।
अन्य अपेक्षाओं से आत्मा के अनेकविध वर्गीकरण अभिधानराजेन्द्र कोश में स्पष्ट किये गये हैं। यहीं पर लक्षण, अस्तित्व, कर्तृत्व, विभुत्व, एकत्व, क्रियावत्त्व, ज्ञानवत्त्व, नित्यानित्यत्व आदि अनेक विषयों का जैनसिद्धान्तानुसार सन्दर्भो के माध्यमों से परिचय दिया गया हैं। विषयवस्तु की बहुलता होने से यहाँ पर विवेचन नहीं दिया जा सका हैं। आभास - आभास (पुं.) 2/275
दुष्ट हेतु या उपाधितुल्यता के कारण भासमान (दृश्यमान) प्रतिबिम्ब को 'आभास' कहते हैं। यह आभास हेत्वाभास, प्रमाणाभास, आगमाभास, प्रत्यक्षाभास, प्रत्यभिज्ञाभास, दृष्टान्तभास, उपनयाभास, निगमनाभास, तर्काभास आदि अनेक प्रकार से है, जो अभिधान राजेन्द्र कोश में यथास्थान वर्णित हैं। इस्सर - ईश्वर (पुं.) 2/664
अणिमादि आठ प्रकार के ऐश्वर्य से युक्त पुरुष को ईश्वर कहते हैं । भिन्न-भिन्न दर्शनों में ईश्वर के स्वरुप की भिन्न-भिन्न कल्पना की गयी हैं। पातञ्जल योगदर्शन के अनुसार क्लेशजनित कर्मों एवं कर्मविपाक से अस्पृष्ट पुरुषविशेष को 'ईश्वर' कहते हैं। योग दर्शन में स्वीकृत ईश्वर कभी संसार में नहीं आया है और संसार को बनाता भी नहीं हैं।
ईश्वरजगत्कर्तृत्वादी न्यायदर्शन में ईश्वर को जगत् का निमित्तकारण (कर्ता) माना गया है, वह ईश्वर सर्वव्यापक है, और वही इस संसार को बनाता हैं, और वही प्राणियों को स्वर्ग-नरक आदि में प्रेरित करता है। अन्य ईश्वर-स्वरुपों से न्यायाभिमत ईश्वर में यह विशेषता हैं।
___ अभिधानराजेन्द्र में ईश्वर शब्द के अन्तर्गत ईश्वरजगत्कर्तृत्व का जैनसिद्धान्तसम्मत विस्तृत खंडन प्रस्तुत किया गया हैं। वहाँ पर अन्ययोगव्यवच्छेद्वात्रिंशिका की कारिका - 'कर्तास्ति कश्चिज्जगतः स चैकः स सवर्गः स सर्वगः स्ववशः स नित्यः । स्युस्तेषां न येषामनुशासकस्त्वम् ॥' पर आचार्य मल्लिषेण सूरि कृत स्याद्वादमंजरी टीका के आधार पर ईश्वर के जगत्कर्तृत्व, एकत्व आदि का खण्डन किया गया है। पतञ्जलिकल्पित ईश्वर का खण्डन आचार्य हरिभद्रसूरि प्रणीत शास्त्रवार्तासमुञ्चय के आश्रय से किया गया है। विशेष जानकारी के लिए अभिधान राजेन्द्र कोश का अवलोकन करना चाहिए। ईहा - ईहा (स्त्री.) 2/684
सत् पदार्थो के अन्वयी और व्यतिरेकी अर्थो के विचार-विमर्श को 'ईहा' (मतिज्ञान का एक भेद) कहते हैं। चेष्टा, सदर्थ के अभिमुख वितर्क, दीर्घचिन्तन, को भी 'ईहा' कहते हैं। 'ईहा' पांच इन्द्रियों और मन-इन छ: से संबंधित होने से छ: प्रकार की होती हैं। उग्गह - अवग्रह (पुं.) 2/725
अनिर्देशित सामान्य मात्र से रुपादि अर्थ का ग्रहण 'अवग्रह' कहलाता है। यह श्रुतनिश्रित मतिज्ञान का भेद हैं। उड्डत्तासामण - उर्ध्वता सामान्य (न.) 2/779
पूर्वापर पर्यार्यों में रहे हुए साधारण (सामान्य) द्रव्य को 'ऊर्ध्वता सामान्य' कहते हैं, जैसे- मुकुट, कडे आदि में स्वर्ण । उदाहरण - उदाहरण (न.) 2/821
उत्पत्ति धर्म से साध्य-साधर्म्य से तद्धर्मभावरुप दृष्टान्त को 'उदाहरण' कहते हैं। यहाँ उदाहरण के भेद-प्रभेद का परिचय
दृष्टव्य हैं।
उवओग - उपयोग (पु.) 2/887
वस्तु के विषय ज्ञान (परिच्छेद) के प्रति जीव जिसके द्वारा जोडा जाता है, उसे 'उपयोग' कहते हैं। ज्ञान के संवेदन का प्रत्यय और जीव के बोधरुप तत्त्वभूत व्यापार को भी उपयोग कहते हैं। यहाँ पर उपयोग के भेद-प्रभेद का विस्तृत वर्णन किया गया है। उवणय - उपनत (न.) नृत्य का प्रकार; उपनय (पुं.) 2/923
गुणकीर्तन, स्तुति, उपसंहार के विषय में दृष्टान्त और दृष्ट अर्थ की सामान्य (प्रकृत) योजना; नय के समीपवर्ती हेतु का साध्यधर्म में उपसंहरण 'उपनय' कहलाता हैं।
सद्भूत व्यवहार, असद्भूत व्यवहार और उपचरितसद्भूत व्यवहाररुप कथात्रिक को भी 'उपनय' कहते हैं। यहाँ इसके भेद-प्रभेद का विस्तृत परिचय दिया गया है। उवणयाभास - उपनयाभास (पुं.) 2/925
उपनय के समान प्रतीत होनेवाला परन्तु उपनय के लक्षणयुक्त न हो, उसे 'उपनयाभास' कहते हैं। जब साध्य धर्म का साधन धर्म में या साधन धर्म का दृष्टान्त धर्म में उपसंहरण होता है, तब 'उपनयाभास' होता हैं।
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