Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
तृतीय परिच्छेद... [103]
बंभण - ब्राह्मण (पुं.) 5/1271
अन्य दर्शनी पुराण के अनुसार ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न मनुष्य ब्राह्मण कहलाते हैं जबकि, जैन दर्शनानुसार श्री ऋषभदेव के ज्ञानोत्पन्न (ज्ञान रुप कुक्षी से व्रत अंगीकार करनेवाले) अहिंसा के पालक और उपदेशक श्रावक ही 'ब्राह्मण' कहलाते हैं। बणिय - वणिज (पुं.) 5/1285
जो दुकान में बैठकर या बिना दुकान के व्यापार करते हैं, व्यापार ही जिनकी आय का साधन हैं, उन्हें 'वणिक' (वणिज) कहते हैं। ज्योतिष में 'वणिज' नामक एक कारण भी हैं। वणियधम्म - वणिजधर्म (पृ.) 5/1285
व्यापारी के लिए न्याय (प्रामाणिकता) पूर्वक व्यापार करना 'वणिज धर्म' हैं। यहाँ अन्यायी व्यापारियों को 'प्रत्यक्ष चोर' की उपाधि देते हुए उनकी प्रपञ्च लीला का निदर्शन किया गया हैं। बहुकम्म (ण) - बधूकर्म 5/1297; बहुकर्मन् (न.)
विवाह के समय कन्या पक्ष द्वारा किये जानेवाले कार्यो को 'बहुकर्म' कहते हैं।
अन्य अर्थ में महाकर्म (महारम्भ-समारम्भ) अर्थात् एसे भारी कर्म जिससे अत्यधिक कर्मबन्ध हो, उसे 'बहुकर्म' कहते हैं। भट्टायार - भ्रष्टाचार (त्रि.) 1341
ज्ञानाचारादि आचार या सदाचार का सर्वथा सर्वांग संपूर्ण नाश 'भ्रष्टाचार' कहलाता हैं। भाउअदूईआ-भातृद्वितीयापर्व - 5/1486
भ्रातृद्वितयापर्व शब्द में नन्दिवर्धन राजा के उसकी बहिन के द्वारा कार्तिक सुदि द्वितीया के दिन सम्बोधित किये जाने और अपने घर आमन्त्रित कर भोजन कराने आदि की कथा का संकेत किया गया हैं। मंगल - मङ्गल (पुं.) 6/5
वाञ्छित की प्राप्ति, श्रेय, कल्याण, गीत, विघ्नक्षय, दुरित के नाश हेतु स्वस्तिकादि, सुवर्ण, चन्दन, दही, अक्षत, दूर्वा, श्वेत सर्षप (सिद्धार्थ), दर्पण आदि, विवाहादि में पवित्र कलश (सफेद कलश), कमल, नन्दावर्त, वरमाला, गुलदस्ता, इष्टदेवतादि को नमस्कार, जयविजयादि शब्द, स्तुति आदि मंगल के निमित्तों को 'मंगल' कहते हैं। यहाँ मंगल के भेद-प्रभेद का नय-निक्षेपपूर्वक वर्णन किया गया हैं।
ज्योतिष में अङ्गारक नामक ग्रह को 'मंगल' कहते हैं। मडयदाह/मडासय/मसाण - श्मशान (न.) 6/169
यहाँ मडयदाह, मडासय और मसाण - ये तीनों शब्द जहाँ मृतक को अग्नि संस्कार होते हैं - 'श्मशान' लिए प्रयुक्त हैं। मढ - मठ (पुं.) 6/74
व्रतियों के आश्रय स्थान को 'मठ' कहते हैं। मणु - मनु (पुं.) 6/94
वैदिक मान्यतानुसार मनुष्यों के परम मूल पुरुष को, मनु के ग्रंथ को और मनुष्य को 'मनु' कहते हैं। महच्चपरिसा - महार्च्य परिषद् (स्त्री.) 6/173
प्रधान पुरुषों (मुख्य व्यक्तियों) की सभा या पूज्यों की सभा महा» परिषद् कहलाती हैं। महाजण - महाजन (पुं.) 6/186
विशिष्ट पर्षदा को 'महाजन' कहते हैं। महालय - महालय (पुं.) 6/210
महान् व्यक्तियों का निवास स्थान, महत्ता प्राप्त स्थान, राजमार्ग, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररु प मोक्षमार्ग, क्षेत्र या स्थिति रुप महान् स्थान और उत्सव के आश्रय भूत स्थान को 'महालय' कहते हैं। महुस्सव - महोत्सव (पुं.) 6/233
बहुत लोग या बहुत गाँवों के लोग मिलकर जो उत्सव मनाते उसे 'महोत्सव' कहते हैं। मिलक्खु - मलेच्छ (पुं.) 6/301
अव्यक्त भाषा और समाचार, जिनका समस्त व्यवहार सदाचार से विरुद्ध हो, आर्य देशोत्पन्न लोगों के द्वारा कही गई बात का निश्चयार्थ न जाननेवाले और बर्बर, शबर, पुलिन्द आदि हीन जाति के लोग 'मलेच्छ' कहलाते हैं। लेहसाला - लेखशाला (स्त्री.) 6/696
अक्षरविन्यास शिक्षणशाला को 'लेखशाला' कहते हैं।
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