Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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[102]... तृतीय परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
णिगम - निगम (पुं.) 4/2028
बहुल वणिक् जाति के निवास स्थान, वणिकजन-प्रधान स्थान, वणिक जनों से अधिष्ठित सन्निवेश, वणिकों के समूह, नगर के वणिक (व्यापारी) विशेष आदि को तथा निश्चित अर्थ और विचित्र अभिग्रह को 'निगम' कहते हैं। णिसेज्जा - निषद्या (स्त्री.) 4/2147
स्त्रियों का निवास स्थान, स्त्रीकृत माया, धर्मशाला और क्षुद्र खाट को भी 'निषद्या' कहते हैं। तिवग्ग - त्रिवर्ग 4/2324
धर्म, अर्थ, काम; तीनों समय; और सूत्र, अर्थ और तदुभय (सूत्रार्थ) को 'त्रिवर्ग' शब्द से कहा जाता हैं। तूह - तीर्थ (न.)4/2341
शास्त्र, यज्ञ, क्षेत्र, उपाय, स्त्रीरज; नदी आदि में उतरने हेतु घाट, विद्यादि गुणयुक्त पात्र, उपाध्याय, मंत्री, योनि, दर्शन, ब्राह्मण, आगम, निदान, अग्नि, कुएँ के पास का जलाशय, दैहिक-मानसिक और भौमिक पवित्र स्थान को 'तीर्थ' कहते हैं। दिविसेवा - दृष्टिसेवा (स्त्री.) 4/2517
हावभावानुसार दृष्टि से दृष्टि का मिलन 'दृष्टिसेवा' कहलाती हैं। दिसासुद्धि - दिक्शुद्धि (स्त्री.) 4/2538
समयानुसार शंख ध्वनि श्रवण, पूर्ण कलशादि का सम्मुखागमन, शुभ गंध आदि स्वाभाविक शुद्धि (शुभ शकुन) को 'दिक् शुद्धि' कहते हैं। धण - धन (न.) 4/2644
धान्योत्पादन, वस्तु, अर्थ, सोना-चाँदी आदि, गाय-भैंस आदि, गुड-शक्कर-मिश्री आदि, बर्तनादि, जायफलादि, कंकु-गुडादि, तैलादि, रत्नादि को 'धण' कहते हैं। ज्योतिष में धनिष्ठा नक्षत्र को भी 'धन' कहते हैं। यहाँ धन सार्थवाह को भी प्राकृत में 'धण' कहा हैं। धण्णणिहि - धान्यनिधि (पुं.) 4/2662
'अनाज' रखने के कोठार को 'धान्यनिधि कहते हैं। पणियगिह - पण्यगृह (न.) 5/380; पणियघर - पण्यगृह (न.) 5/380
बर्तन की दुकान, मिट्टी के बर्तन जहाँ मिलते हैं -कुम्हार की दुकान को 'पण्यगृह' कहते हैं। पणियसाला - पण्यशाला (स्त्री.) 5/380
जहाँ कुम्हार मिट्टी आदि के बर्तन बनाते हैं या बेचते हैं, उस दुकान को 'पण्यशाला' कहते हैं। परिवार - परिवार (पुं.) 5/634
स्वयं को छोडकर स्त्री, बालकादि तथा दास-दासी, नौकर आदि युक्त (कुटुम्ब) को परिवार कहते हैं। परिसा - पर्षत् (स्त्री.) 648
कुमत में प्रवृत्त ढोंगियों के मत का जिनके अन्तःकरण में असर न हो, गुण-दोष रुप विशेष परिज्ञान में कुशल, दोष होने पर भी दोष का त्याग कर केवल गुणग्राहक महाजन, नगरवासी, कोविद (विद्वान), मंत्री या रहस्यवालों (अन्तःपुर महत्तरिका, आचार्य और आलोचना ग्रहण करने वाला साधु) की बैठक या सभा को 'परिसा' (परिषद्) कहते हैं।
यहाँ पर्षदा के लौकिक और लोकोत्तर भेद से अनेक प्रकार से भेद-प्रभेद वर्णित हैं। साथ ही चरमेन्द्र से लगाकर अच्युत देवलोक तक के इन्द्रों की पर्षदा का भी वर्णन किया गया हैं। पुरवर धम्म - पुरवर धर्म (पुं.) 5/1010
प्रत्येक शहर में रहन-सहन, भाषा आदि के भिन्न-भिन्न नियम 'पुरधर्म' शब्द से कहे जाते हैं। पूजण - पूजन (न.)5/1073
सत्कार-पुरस्कार, वस्त्र-पात्रादि दान, सुगंधि माला आदि के द्वारा अर्चन, गुर्वादि को द्रव्य दान-अन्नदान-सत्कार-प्रणाम-सेवा आदि 'पूजन' कहलाता हैं। पूया - पूजा (स्त्री.) 5/1073
प्रशस्त-मन-वचन-कायपूर्वक का पूजन, सत्कार, गायत्रीपाठादि संध्यार्चन, पुष्पादि से अर्चन, सुगंधिमाला-वस्त्र-पात्र-अन्न-पानी दान आदि, यथोचित पुष्प-फल-आहार-वस्त्रादि प्रदान आदि द्रव्यपूजा, स्तवनादि, चैत्यवंदन, स्वरुप भावना, गुणैकत्वरुप स्वरुप साधना-भावपूजा कहलाती हैं।
यहाँ साधु की भावपूजा, श्रावक द्वारा भावपूर्वक की गयी द्रव्यपूजा, गुरुपूजा, उचित-प्रतिपत्तिपूजा, बहुश्रुतपूजा आदि के स्वरुप का वर्णन किया गया है। पोसहसाला - पौषधशाला (स्त्री.) 5/1139
लोकोत्तर पर्व के दिनों में पौषध (अनुष्ठान विशेष पूर्वक गृहस्थ का व्रतयुक्त साधुवत् जीवन), आदि ग्रहण करने एवं धार्मिक जनों को आराधना करने के लिए 'निरवद्य' साधारण स्थान को 'पौषधशाला' कहते हैं। यह यथावसर साधुओं को ठहरने के लिए उपाश्रय रुप
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