Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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[46]... द्वितीय परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन इस शब्द के अर्थ संकेत का साधन ईश्वर शक्ति या ईश्वर ये निर्वचन इस प्रकार से हैं - 1 वर्णागम 2. वर्णविपर्यय 3. वर्णविकार कृत नहीं है यह बात निम्नलिखित श्लोक से भी सिद्ध हो जाती 4 वर्णनाश और 5 धातु का अर्थ विशेष से संबंध ।।
कोशलेखन की प्रारंभिक स्थिति:"शक्तिग्रहं व्याकरणोपमान
वैदिक निघण्टुओं पर निरुक्त लिखने की प्रक्रिया यास्क कोशाप्तवाक्याद् व्यवहारतश्च ।
निरुक्त तक ही सीमित रह गयी परन्तु उस समय प्रचलन में आये वाक्यस्य शेषाद् विवृत्तेर्वदन्ति,
कठिन शब्द जो कि लौकिक जनों द्वारा बहुशः प्रयुक्त होते थे, कालान्तर सान्निध्यतः सिद्धपदस्य वृद्धाः ॥''12 में दुरुह हो गये अथवा उनके अर्थ में विस्तार हो गया या परिवर्तन
इन शक्तिग्रहों में कहीं पर भी ईश्वर का नाम नहीं आया, हो गया। इसके लिये कवियों एवं कोश विद्या के ज्ञाताओंने अनेकों हाँ, इतना अवश्य है कि पदार्थ का साक्षात्कार करने वाले आप्त के शब्दों का संग्रह करके एक अर्थ में प्रयुक्त अनेक पर्यायवाची शब्दों वाक्य से अवश्य शक्तिग्रह होता है परंतु वह आप्त ऐसे बाध्य नहीं को एक साथ रखने की पर्यायकोश की विधा में कोश लिखे। इसी करता कि 'हे शब्दप्रयोक्ताओ! यह शब्द है, और यह इसका अर्थ प्रकार कुछ विद्वानों ने एक अर्थ पर एक शब्द के अनेक पदार्थो है, आप लोग इस शब्द का इस अर्थ के लिए ही प्रयोग करो।' के वाचक होने की स्थिति में अर्थ निर्धारण के लिये अनेकार्थकोश वह तो केवल प्रत्यक्ष किये हुए शब्दार्थ-संबंध को ही बताता है।
लिखना प्रारंभ किया। यद्यपि एक अक्षरवाले शब्द यदा-कदा ही कोशकार भी सिद्ध-शब्दार्थ-संबंध के बारे में ही लिखता है। वह
प्रयोग में आते थे और एकाक्षर शब्दों का प्रायः एक अर्थ में ही नियम नहीं करता कि मेरे कोश में आये हुए शब्दों का प्रयोग अमुक
प्रयोग होता है, फिर भी, कभी-कभी जो लोग व्युत्पत्ति नहीं जानते अर्थो में ही किया जाय, वह तो केवल प्रचलित, अप्रचलित, गूढ,
और केवल कोश के आश्रय से ही अर्थ समझते हैं उनके लिये भिन्न-भिन्न शब्दार्थो को सूचित मात्र करता है।
एकाक्षर कोश की आवश्यकता होती है। उदाहरण - 'कुंद' = यह कोश की महिमा बताती हुई एक उक्ति प्रचलित है
शब्द एक पुष्प विशेष का वाचक है और प्रसिद्ध है। इसके विपरीत "कोशश्चैव महीपानां, कोशश्चैव विदुषामपि ।
'कंद' शब्द उच्चारण और अक्षरविन्यास में 'कुंद' के समान है और उपयोगेन महानेष क्लेशस्तेनविना भवेत् ॥'13
'कंद' शब्द वनस्पति के तने के रुपान्तर के अर्थ में प्रयुक्त होता अर्थात् जैसे राज्य संचालन के लिये राजा के लिये मुद्राकोष
है। परंतु जब एकाक्षर कोश से इसकी व्युत्पत्ति समझी जाती है आवश्यक होता है उसी तरह शब्द साधना करने वालों के लिये
तब इसका अर्थ मेघ होता है। यथा - कर = जलम् - द =
ददाति इति कंदः। शब्दकोश अत्यावश्यक होता है। क्योंकि निरुक्ति और व्युत्पत्ति से
ये एकाक्षर कोश कवियों के रचनाकार्य में उपयोगी शब्दों प्राप्त शब्द किसी अर्थ विशेष में रुढ हो जाने से व्याकरण का क्षेत्र
के संग्रह होते हैं। इनमें कोशकारों की अपनी विवेकबुद्धि के अनुसार सीमित हो गया। इस अवस्था में कोश ही एक एसा उपाय है,
शब्दों का भिन्न-भिन्न वर्गों में वर्गीकरण किया हुआ होता है। इसी जो सिद्ध, असिद्ध, यौगिक, रुढ या योगरुढ आदि सभी प्रकार के
आवश्यकता की पूर्ति के लिये कुछ कोशकारों ने अव्यय कोशों का शब्दों का संकेत ग्रहण करा सकता है।
भी निर्माण किया। अतः कोश ज्ञान शब्दों के संकेत को समझने के लिये
प्राचीन कोश साहित्य का इतिहास और परम्परा:अत्यावश्यक है। साहित्य में शब्द और शब्दों के उचित प्रयोग की
संस्कृत साहित्य के इतिहास में कोश निर्माण परम्परा ईसा जानकारी के अभाव में रसास्वादन की प्राप्ति असंभव है। अतएव शब्दों
से भी पूर्व में विद्यमान है। भिन्न-भिन्न रचनाकारों ने भिन्न-भिन्न के अभिधेयबोध के लिये कोश व्याकरण से भी अधिक उपयोगी है।
पद्धतियों का अवलंबन लेकर आवश्यकतानुसार एवं रुचि के अनुसार कोश द्वारा अवगत वास्तविक वाच्यार्थ से ही लक्ष्य एवं व्यंग्यार्थ का
कोशों का निर्माण किया। अवबोध होता है ।। अत: आवश्यकता को देखते हुए आचार्योने लोक
12. शब्दशक्तिप्रकाशिका कल्याण के लिये कोशों का प्रणयन किया।
13. श्रीमज्जयन्तसेन सूरि अभिनन्दन ग्रन्थ, विश्लेषण, पृ29 प्रथम कोश 'निघण्टु' का प्रादुर्भाव:
14. अभिधान चिंतामणि नाममाला, प्रथमकाण्ड, श्लोक ! इतिहासकारों के अनुसार यास्क-निरुक्त से भी पूर्व सर्वप्रथम
15. अभिधान चिंतामणि नाममाला, प्रस्तावना पृ. 8
16. जयन्तसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ: विश्लेषण, पृ. 29 -डो. रुद्रदेव त्रिपाठी कोश के रचयिता महर्षि कश्यप हुए। उनके इस कोश का नाम
17. वही 'निघण्टु' था।" यास्क-निरुक्त की भूमिकाः प्रथम अध्यायः प्रथम ऊँ समाम्नाय समाम्नातः ..निघण्टवः कस्मात् निगमा इमे भवन्ति..यास्क पादा देखने से इस बात की पुष्टि होती है कि 'निघण्टु' शब्दों
निरुक्क 1.1.1
19. वही के वे कोश थे जिनमें वैदिक शब्दों का संग्रह किया जाता था।"
20. देखिये-यास्क निरुक्तः भूमिका - उमाशंकर ऋषि यह निरुक्त वेद के उन कठिन शब्दों का पांच प्रकार से निर्वचन 21. यास्क निरुक्त, भूमिका, द्वितीय अध्याय, पृ 34 करता था जिससे अर्थ को स्पष्ट समझने में सहायता मिल सके 20
22. देखिये - एकाक्षर कोश; के सीर्षेऽप्सु सुखे....। अनेकार्थसंग्रह 1/5 23. श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथः विश्लेषण, पृ29, -डो. रुद्रदेव त्रिपाठी
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