Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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[74]... द्वितीय परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन के आरंभ रुप न होने से मोक्ष सख की अभिलाषावालों क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् । के रागित्व नहीं होता।"35
यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात् सुखितो भवेत् ॥ यहाँ पर टिप्पणी में कर्म-द्वैविध्य के माध्यम से एक और
यहीं पर शुद्ध क्रिया और अशुद्ध क्रिया का विवेचन किया सैद्धान्तिक शंका को स्थापित किया गया है कि "तीर्थंकरों के विहार्यमाण गया है। अशुद्ध क्रिया से व्यक्ति कुशील होता है। इसका पूरा विवेचन देश में तीर्थंकरों के अतिशय से 25 योजन तक अथवा 12 योजन 'कुशील' शब्द के अन्तर्गत किया गया है। तक वैरादि नहीं होते हैं तो उन्हीं तीर्थंकरों को उपसर्ग आदि क्यों
केवली द्वारा प्ररुपित क्रियाओं का पालन करने से ही केवलज्ञान होते हैं ? इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि, "कर्म दो उत्पत्ति होती है। इसीलिये केवलज्ञान के प्रस्ताव के निरुपण में प्रकार के होते हैं - सोपक्रम और निरुपक्रम । सोपक्रम का अर्थ है,
यहाँ सर्वज्ञ की सिद्धि की गयी है। क्रमप्राप्त केवलियों के भेद बताने जिसका उपचार संभव हो और निरुपक्रम का अर्थ है जिसका कोई
के बाद उनके कवलाहार के संबंध में श्वेतम्बरों की दिगम्बरों के साथ उपचार संभव न हो। जैसे उपचार से साध्य व्याधि तो दूर हो सकती
जो विप्रतिपत्ति हैं उसका उल्लेख करते हुए वेदनीय कर्म के सद्भाव है परंतु असाध्य व्याधि दूर नहीं होती; उसे तो भोगना ही पडता
के कारण क्षुधा इत्यादि का होना संगत है, इसमें कोई सिद्धांत हानि है। उसी प्रकार सोपक्रम कर्मों से होनेवाले वैर आदि जिनातिशय
नहीं है। इस प्रकार का पूरा विवेचन 'केवली' शब्द के अन्तर्गत से शांत हो जाते हैं परंतु निरुपक्रम कर्म होने पर तीर्थंकरों को भी देखना चाहिए। उपसर्ग आदि होते हैं जैसे गोशालक इत्यादि के द्वारा किये गये उपसर्ग।
बौद्धों का कर्म विषयक सिद्धांत और उसकी विप्रतिपत्ति 'कर्म' शब्द के विस्तार का परिचय देते हुए आगे यह कहा
इत्यादि बहुत सारे विषय कर्म के ही प्रसंग में 'खणियवाइ' शब्द गया है कि ज्ञानवरणादि कर्मो के भेद-प्रभेद, बंध-उदय, इत्यादि
के अन्तर्गत देखना चाहिए। कर्म के ही प्रसंग में गच्छऔर गच्छ की का समग्र विवेचन 'कम्म' शब्द में दिया गया है। जैन दर्शन में
सार्थकता 'गच्छ' शब्द के अन्तर्गत प्रतिपादित की गयी है। कर्म की ही प्रधानता है। सभी तीर्थंकरों ने यही प्रतिपादित किया
गुणस्थान का कर्मों के साथ विशेष संबंध होने से गुणस्थान
शब्द में जैनदर्शन सम्मत गुणस्थान सिद्धांत का सांगोपांगविवेचन कयण्ण' शब्द के अन्तर्गत कतज्ञता के विषय में
'गुणट्ठाण' शब्द के अन्तर्गत किया गया है, जो इसी शोध-प्रबंध 'विमलकुमार' का दृष्टांत दिया गया है तो 'कला' शब्द के
में उचित स्थान पर दिया गया है। अन्तर्गत पुरुष की 72 कलाओं का वर्णन किया गया है। इस प्रकार
कर्म के ही प्रसंग में 'गोयरचरिया,शब्द के अन्तर्गत भिक्षाटन क्रमप्राप्त सभी शब्दों का सभी प्रकार से अर्थ स्पष्ट किया गया है ।
"कल्लाणग' शब्द के अन्तर्गत षट्कल्याणकत्व का खंडन 35. न च मुमुक्षोरपि मुक्ति सुखाभिलाषेण प्रवर्तमानस्य सरागत्वं, करते हुए 'पंचकल्याणकवाद' को तर्को से सिद्ध किया है।
सम्यग्ज्ञानप्रतिबन्धकरागविगमस्य सर्वज्ञत्वाऽ न्यथाऽनुपपत्या प्राक्
प्रसाधितत्वाद्, भवोपग्राहिकर्मनिमित्तस्य तु वाग्बुद्धिशरीराऽऽम्भप्रवृत्तिरुपस्य 'कसाय' शब्द के अन्तर्गत कषायों का अष्टविधत्व, कर्मद्रव्य
सातजनकस्य शैलेश्यवस्थायां मुमुक्षोरभावात्, प्रवृत्तिकारणकषाय, नोकर्मद्रव्य-कषाय - इस प्रकार कषायों का दो वर्गों में विभाजन त्वेनाभ्युपगम्यमानस्य मोक्षसुखाभिलाषस्याप्यसिद्धेर्न मुमुक्षोः रागित्वम् । करते हुए उपपत्ति कषाय, प्रत्यय कषाय, आदेश कषाय, रस कषाय,
-वही पृ.7
36. .......ननु तीर्थंकरा यत्र विहरन्ति, तत्र देशे पश्चविंशतियोजनानि, आदेशान्तरेण भावकषाय, का प्रतिपादन किया गया हैं। इनमें नाम कषाय, स्थापना
द्वादशानां योजनानां मध्ये तीर्थकरातिशयान्न वैरादयोऽनर्था भवन्ति।... तत्कथं कषाय और द्रव्य कषाय जोड देने से कषाय का अष्टविधत्व हो जाता श्रीमन्महावीरे भगवति पुरिमताले नगरे व्यवस्थिते एवाभग्रसेनस्य पूर्ववणितो है। इनका समग्र विवेचन शोध प्रबंध में यथास्थान किया जायेगा। व्यतिकरः संपन इति? कर्म च द्विधा-सोपक्रम निरुपक्रमं च। तत्र यानि 'काल' शब्द के अन्तर्गत काल की सिद्धि, लक्षण, भेद,
वैराऽऽदीनि सोपक्रमसंपाद्यानि, तान्येव जिनातिशयादुपशाम्यन्ति,
संदोषधात्साध्यव्यधिवत् । यानि तु निरुपक्रमकर्मसंपाद्यानि तान्यवश्य दिगम्बर मत का अभिप्राय, अन्य मतान्तरों का खंडन कर्म के प्रसंग
विपाकतो वेद्यानि असाध्यव्याधिवत् । अत एव सर्वातिशयसंपत्समन्वितानां से किया गया है। कर्म के ही प्रसंग से कृतिकर्म का भी प्ररुपण जिनानामाप्यनुपशान्तवैरभावा गोशालकादय उपसर्गान् विहितवन्त इति । - किया गया है। आगे कर्म क्रिया के अधीन होने से क्रिया का स्वरुप वही पृ. 7 टिप्पणी।
37. -वही प्र.8 बताते हुए साध्यावस्थाक्रिया और सिद्धक्रिया का 'वाक्यपदीय' के
अ.रा.भा.3 प्रस्ताव, पृ. 8 अनुसार स्पष्टीकरण करते हुए पुनः द्रव्यक्रिया और भावक्रिया का भेद
'कल्लाणग' शब्दे वीरस्य तीर्थकरनामकर्मयोगात् पञ्च कल्याणकानि निरुप्य प्रभेदपूर्वक जैन सिद्धांतानुसार विवेचन किया गया है। यहीं पर षट्कल्याणक वादिमतनिराकरणम्। -वही मिथ्याक्रिया, प्रयोगक्रिया इत्यादि क्रिया का पंचविंशतिविधत्व (25
कर्मक्रिययोभित्रवस्तुत्वेऽपि कर्मणः क्रियाऽधीनत्वात् 'किरिया' शब्दे
क्रियायाः स्वरुपनिरुपणे तीर्थान्तरीयमतसंग्रहः - वही पृ.9 प्रकार) सूचित किया गया है। ये सब (25) हेय क्रियाएँ हैं।
41. ..... क्रियास्वरुपैरपि क्रियायाः पञ्चविंशतिविधत्वम् ।....ज्ञानं आत्मोन्मुख ज्ञान एवं क्रिया से मोक्ष होता है। यहाँ पर क्रिया स्वरुपरमणरुप स्वरुपाभिमुखवीर्यप्रवृत्तिक्रिया, एवं ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः । तत्र ज्ञानम्है जो कि चारित्र, वीर्य और गुणों के एकत्व की परिणति की साधिका
स्वपरावभासनरुपम्, क्रिया-स्वरुपरमणरुपा, तत्र चारित्रवीर्यगुणैकत्वपरिणतिः
क्रिया सा साधिका। अ.रा.भा., प्रस्ताव पृ. 10 हैं। । यहाँ पर कहा गया है
......घातिकर्मोद्भवा अज्ञानादिका दोषाः प्रसिद्धाः तदभावेऽपि वेदनीयोद्भवा क्रियाविरहितं हन्त ! ज्ञानमात्रमनर्थकं,
क्षुधा किं न स्यात् । न हि वयं भवन्तमिव तत्वमनालोच्य क्षुत्पिपासाऽऽदिनैव गतिं विना पथज्ञोऽपि, नाप्नोति पुरमीप्सितं ॥
दोषानभ्युपगमो, येन निर्दोषस्य केवलिनः क्षुधाऽद्यभावः स्यात;
- अ.रा.भा.3 प्रस्ताव, पृ. ॥
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