Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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तथा
[76]... द्वितीय परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन "एतेन तृतीयभागप्रस्तावोपन्यस्तपराभि- स्वभावभूत है। इनमें आत्मा परिणामीनित्य है। इसके ज्ञानावरणीय संघानविमुखत्वं भगवतस्तीर्थकरस्य राग-द्वेषजेतृत्वेन कर्मो के अत्यन्त प्रकर्ष होने पर भी ज्ञान का निरन्वय विनाश नहीं सर्वतोभावेन समर्थितम् ।'50
हो पाता। क्योंकि यदि ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से धर्मी और धर्म
दोनों का निरन्वय विनाश मानेंगे तो स्वभाव के ही लोप का प्रसंग “अथ (जमालि प्रसंगादेव) तृतीयभागप्रस्ता-वस्य आ जायेगा। लेकिन रागादि तो कर्म विपाक के उदय से सम्पादित पञ्चमे पृष्ठे ‘चत्वार्येव भूतानि तत्त्वं न तु तद्व्यतिरिक्तो होने से सत्ता में आते हैं, इस कारण से कर्म का निर्मूल नाश हो भवान्तरानुसरण-व्यसनवानात्मतिचार्वाक चर्चा पराकरणं जाने से उन रागादि दोषों का भी निर्मूल नाश हो जाता है । इत्यादि विधाय जीवसिद्धस्यपादिता, इह तु...।"
प्रकार से तीर्थंकरों के रागद्वेष विप्रमुक्तत्व की सिद्धि की गयी है। जैसा कि 'घण्टापथ' शब्द से ही ध्वनित होता है कि इस
रागादि दोषों की कारणता के विषय में चार्वाक मत को उपस्थित में उपाध्यायश्री कुछ विशेष ध्वनित करते हुए अभिधान राजेन्द्र कोश
करते हुए उसका भी प्रत्याख्यान इसी अनुच्छेद में किया गया है। के उद्देश्य एवं अध्ययन विधि के बारे में कहना चाहते हैं कि 'यह
चार्वाकों का कहना है कि ये रागादि लोभादि कर्मों के विपाक और
उदय से नहीं होते हैं, किन्तु कफ आदि प्रवृत्ति के कारण होते हैं। कोश मात्र शब्दार्थ का संग्रहनहीं है, मात्र आगमों की शब्दावली
जैसे: -कफ से राग, पित्त से द्वेष और वात से मोह । इसलिए चूंकि का विवेचन नहीं है, लेकिन इसमें आये हुए शब्दों की व्याख्या
कफादि तो शरीर में सदा ही रहते हैं अतः वीतरागत्व तो संभव नहीं में यथास्थान वादियों के मतों का खंडन करते हुए 'स्याद्वाद'
हैं। इस प्रतिज्ञा का खंडन करते हुए कहा गया है कि हेतु तो और उसके उपदेष्टा तीर्थंकरों के शासन की युक्तियुक्तता
तब कहा जायेगा जबकि हेतुमान का व्यभिचरण न करता हो। लेकिन प्रतिपादित की है।' इस प्रकार 'घण्टापथ' में जैन शासन के लक्ष्य
ऐसा नहीं होता; कफ प्रकृति वालों में भी द्वेष आदि देखे जाते हैं और उद्देश्य के साथ वीतरागत्व, तीर्थंकरत्व और स्याद्वाद का परिचय
और पित्तप्रकृति में भी राग और मोह देखे जाते हैं। इत्यादि प्रकार दिया गया है। यहाँ पर सादि-अनंत मोक्ष की प्राप्ति के लिए साधनभूत से चार्वाकों के मत का विभिन्न युक्तियों से खंडन किया गया है।57 धर्म और वस्तु के स्वभावरुप धर्म दोनों का ही विशेष रुप से परिचय
50. वही, पृ.4, प्रथम अनुच्छेद। दिया गया है जो कि एक दूसरे से अनुस्यूत हैं, अर्थात् निवृत्ति
51. वही, पृ. 5 द्वितीय अनुच्छेद। के साधन-स्वरुप धर्म (चारित्र), वस्तु (जीव द्रव्य) के 52. रागद्वेषाऽ ऽ धन्तरङ्गारविप्र मुक्तां पराभिसंधानाध्ययनविमुखासहभावी धर्म का ही क्रियात्मक स्म है। इस शोध-प्रबंध का स्तत्त्वपारावारतलस्पर्शिनः परदुर्गतिसमापनदुर्भगजनताप्रकारान्तर से विषय भी यही है। घण्टापथ के प्रथम अनुच्छेद में
निरीक्षणसमुत्पन्नकरुणरसो -द्गारपुलकितान्तः करणा दरीदृश्यन्ते,
तद्वचनसुधासारणीसमवगाहन- सुखैषिणः पुरोभागिभिन्नां के वा न भवेयुः? यह बताया गया है कि तीर्थंकर राग-द्वेष से मुक्त होते हैं और इसी
-अ.रा.भा.4, घण्टापथ, पृ.1, प्रथम अनुच्छेद कारण उनका उपदेश सदा ही समीचीन होता है; कभी भी असमीचीन
53. ननु तीर्थकृतां रागाऽऽदिभिः सहाऽऽत्यान्तिको वियोगोऽसंभवः, नहीं होता, असमीचीनता में कारण वैकल्य होने से। इस विषय प्रमाणबाधनात् । तच्च प्रमाणमिदम् यदनादिमद् न तद्विनाशमाविशति, में उपाध्यायश्री ने पहले पूर्वपक्ष स्थापित किया है और फिर उत्तर यथाऽऽकशम्, अनादिमन्तञ्चरागाऽऽदय इति । किञ्च रागाऽऽदयो धर्माः. पक्ष, अनुयोग-प्रत्यनुयोग द्वारा पूर्वपक्ष का खंडन करते हुए सिद्धांत
ते च धर्मिणो भिन्नां, अभिन्ना वा ?। यदि भिन्नास्तहि सर्वेषामविशेषेण
वीतरागत्वप्रसङ्गः, रागेभ्यो भिन्नत्वात् विवक्षितपुरुषवत् । अथाभिन्नास्तहि को स्थापित किया है।
तत्क्षये धर्मिणोऽप्यात्मनः क्षयः, तदभिन्नत्वात् । तत्स्वरुपवत्, इति कुतस्तेषां यहाँ पर प्रश्न के रुप में पूर्वपक्ष स्थापित किया गया है
वीतरागत्वम् ? तस्यैवाऽभावादिति । -वही कि "तीर्थंकरों के रागादि दोषों का आत्यान्तिक नाश असंभव है क्योंकि
54. ...यद्यपि रागा ऽऽदयो दोषा अनादिमन्तः, तथापि कस्यचित् स्त्रीशरीराऽऽदिषु रागादि अनादि सम्बद्ध हैं और जो-जो अनादि होते हैं वे नष्ट नहीं यथा ऽवस्थित-वस्तुतत्त्वावगमेन तेषां रागाऽऽदीनां प्रतिपक्षभावनात: होते, जैसे आकाश। दूसरे यदि ये रागादि जीव से भिन्न धर्म हैं प्रतिक्षण-मपचयो दृश्यते, ततः संभाव्यते-विशिष्टकालाऽऽदिसामग्रीसद्भावे या अभिन्न धर्म ? दोनों ही पक्षों में प्रमाण से बाधा है। यदि भिन्न
भावनाप्रकर्षविशेषभावतो निर्मूलमपि क्षयः । - वही
55. द्विविधं हि बाध्यम् - सहभूतस्वभावभूतम्, सहकारिसंपाद्यस्वभावभूतं च । है तो सभी जीवों के वीतरागत्व का प्रसंग आ जायेगा और यदि
तत्र यत् सहभूतस्वभावभूतं, तन्न कदाचिदपि निरन्वयविनाशमाविशति, ज्ञानं अभिन्न है तो धर्म का नाश होने से धर्मी के नाश होने का प्रसंग
चाऽऽत्मनः सहभूतस्वभावभूतम्, आत्मा च परिणामी नित्यः, ततोऽत्यन्त आ जायेगा।"
प्रकर्षवत्यपि ज्ञानाऽऽवरणीयकर्मोदये न निरन्वयविनाशो ज्ञानस्य इसके उत्तर में कहा गया है कि यद्यपि रागादि अनादि है फिर रागाऽऽदयस्तु लोभाऽऽदिकर्मविपाकोदयसंपादितसताकाः, ततः कर्मणो भी विशेष अवस्था में स्त्री आदि के शरीर में रागादि होने पर भी वस्तु निर्मूलमपगमे तेऽपि निमूर्लमपगच्छन्ति । तत्त्व का ज्ञान होने पर उसके प्रति रागादि कम होते जाना देखा जाता है
-अ.रा.भा.4, घण्टापथ, पृ.1, प्रथम अनुच्छेद
56. अत्राऽऽहुर्बार्हस्पत्यां -"नैते रागाऽऽदयो लोभाऽऽदिकर्मविपाकोदयनिबन्धनाः, और कभी-कभी लब्धि के योग से उसका निर्मूल क्षय भी हो जाता
किन्तु कफादिप्रकृति- हेतुकाः।" ....ततो न वीतरागात्वसंभवः । -वही है । इत्यादि प्रकार से प्रथम शंका का समाधान किया गया। दूसरी
पृ.2 शंका का समाधान निम्न प्रकार से किया गया हैं :
तथाहि -स तद्धेतुको, यो यं न व्यभिचरति----वातप्रकृतेरपि दृश्यते रागद्वेषौ, बाध्य दो प्रकार का होता है - सहभूतस्वभावभूत और सहकारी कफप्रकृतेरपि द्वेषमोहौ, पित्तप्रकृतेरपि मोहरागौ, ततः कथं रागाऽऽदयः संपाद्यस्वभावभूत । उनमें से जो सहभूतस्वभावभूत होता है वह कभी
कफदिहेतुकाः? ---अथपक्षान्तरं गृह्णीथाः -यदुत न कफहेतुको रागः, भी निरन्वय विनाश को प्राप्त नहीं होता अर्थात् धर्म और धर्मी दोनों
किन्तु कफादिसाम्यहेतुकः । तथाहि कफादिदोषसाम्ये विरुद्धव्याध्यभावतो का नाश एक साथ ही संभव होता है। आत्मा और ज्ञान सहभूत
रागोद्भवो दृश्यत इति। तदपि न समीचीनम् । -वही Jain Education International For Private & Personal Use Only
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