Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
द्वितीय परिच्छेद... [81] विमर्श:
कहलाते हैं। और इस प्रकार ये गुरु दो प्रकार के होते हैं। एक तो
वे जिनमें देवादिदेवत्व प्रगट हुआ है अर्थात् जगद्गुरु तीर्थंकर और यहाँ पर आचार्य का अभिप्राय यह है कि भगवान महावीर
दूसरे वे जिनमें देवाधिदेवत्व प्रकट नहीं है। इसलिए प्रथम प्रकार अपने गुणों के कारण सर्ववन्द्य है और उनकी वाणी भी सर्ववन्द्य
के गुरु को जैन सिद्धांत में सुदेव/देव कहते हैं। और द्वितीय प्रकार है। उसको ग्रहण करने एवं धारण करनेवाले गणधर, पूर्वधर, श्रुतधर
के गुरु को सुगुरु/गुरु गुरु कहते है। इसके साथ ही उनके उपदेशों आदि पूर्वाचार्यों, उपाध्यायों एवं सभी साधुजनों के साथ-साथ
को अर्थात् उनकी वाणी को भी उन्हीं के बराबर महत्त्व दिया गया गुणग्राहक श्रावक, श्राविकाओं के द्वारा सर्वथा वंदनीय है। उस
है क्योंकि कोई भी गुरु स्वतः उपकारी नहीं है। वाणी ही वह महत्त्वपूर्ण वाणी के विषय में जो कुछ भी कहना चाहता हूँ उसे संक्षेप माध्यम है जिससे वे उपकारी होते हैं, इसलिए जैन परम्परा में जिनवाणी में वर्णानुक्रम से कहता हूं।
को भी इन त्रिरत्न में सम्मिलित किया गया है। यही कारण है कि यहाँ पर वीर की वाणी को नमस्कार करते हुए परंपरया आचार्यश्रीने प्रथम भाग में वीरवाणी को नमस्कार किया है। वीर को भी नमस्कार किया गया है। वीर की वाणी को ग्रहण करने
यह स्पष्ट है कि आचार्यश्रीने मंगलाचरणों में देव, के लिए सभी ज्ञाता और गुपग्राहक अभिभूत होते हैं। उनको ग्रहण गुरु एवं शास्त्र (जिनवाणी) - इन तीनों को नमस्कार करने में सरलता है। इसलिए संक्षेप में वर्णानुक्रम से उसके बारे में किया है और वाणी का और आगमों का महत्त्व प्रतिपादित आचार्यदेव वर्णन करते हैं। 'समासओ' का अर्थ यह है कि आचार्यदेव
किया है। इस प्रकार मंगलाचरण में परम्परा का संकेत किया अपनी आयु मर्यादा की दृष्टि से जितना कथन कर सकते हैं वह गया है। संक्षेप में ही संभव है। और दूसरे, जो वाणी के ग्राहक हैं वे विस्तार
आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजीने मंगलाचरण पद्यों से ग्रहण नहीं कर सकते हैं, अतः संक्षेप में वर्णन किया गया है
में कहीं पर भी यह नहीं कहा है कि मैं शब्दों का अर्थ बतानेवाला
कोश बनाऊंगा, अपितु यह स्वीकार किया है कि भगवान महावीर और 'वत्तव्वयं' कहने से अभिप्राय है कि यद्यपि वीर की वाणी
की वाणी अर्थात् जिनागमों का सार लेकर उस वाणी के विषय अत्यन्त गंभीर है और पदार्थों का स्वभाव अनिर्वचनीय है, फिर भी
में जो वक्तव्य है और उसमें गुम्फित जो शब्द हैं, उन पर जो भी संकेत रुप से लोक व्यवहार में वाणी के द्वारा पदार्थ का स्वरुप जिस
वक्तव्य है, उसे अक्षरक्रम से कहूँगा । इससे यह स्पष्ट है कि आचार्यश्री प्रकार से कहा जा सकता है वह उसका वक्तव्य स्वरुप है, उसे ही
का प्रयोजन शब्दकोश अथवा विश्वकोश का निर्माण नहीं है, अपितु आचार्यश्री कहते हैं। अनिर्वचनीय स्वरुप तो केवलिगम्य है अथवा
अंतरंग यही है कि भगवान महावीर की वाणी का विशिष्ट विवेचन यह कि स्याद्वाद नय का जो 'अवक्तव्य' भंग है उसको गौण करके
लोगों को उपलब्ध हो। पदार्थ के अस्ति-नास्ति वक्तव्य स्वरुप को मुख्य करके, वक्तव्य स्वरुप
क्योंकि लोगों को यह ज्ञात ही नहीं है कि शास्त्र में है उसके बारे में आचार्यदेव कहते हैं।
किन सिद्धांतो का कथन किस अर्थ और किस अपेक्षा से हैं, अत: यहाँ पर विशेष दृष्टव्य यह है कि छहों भागों में प्राप्त मंगलाचरणों लोगों को शब्दार्थ के माध्यम से शास्त्र का सही अर्थ में से प्रथम भाग, द्वितीय भाग एवं तृतीय भाग में अंतिम तीर्थंकर उपलब्ध हो; भ्रम का निवारण हो और सिद्धांतो का ज्ञान वीरजिन का स्मरण करते हुए उनकी वाणी को नमस्कार
हो इसीलिये आचार्यश्रीने आगमों में अंतर्निहित शब्दों का किया गया है; इसके साथ ही तृतीय भाग के मंगलाचरण में गुरु
कोश-पद्धति से व्याख्यान किया है। को भी नमस्कार किया गया है; चतुर्थ, पंचम एवं षष्ठ भाग में 'वीर',
. इस प्रकार निश्चित हो जाता है कि इस रचना के अध्ययन एवं 'वर्धमान स्वामी' नाम से अंतिम तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी
के अधिकारी वे जीव हैं जो संसार के दुःखों से भयभीत हैं और को नमस्कार किया गया है।
भोगों को हेय (त्याज्य) मानते हैं और मोक्ष के अभिलाषी हैं और उपर्युक्त नमस्कार आचार्य की शासन परम्परा को सूचित
संहनन एवं मनोबल के अनुसार मुक्ति मार्ग में प्रवृत होते हैं। यह करता है। जैन परम्परा में यह सिद्धान्त प्रतिपादित है कि इस संसार
कोश साधु एवं श्रावकों के लिए अथवा जो साधु अथवा श्रावक में विकास और ह्रास से युक्त एक कालचक्र है जिसमें दो भाग हैं
बोध प्राप्त करने के इच्छुक हों उन्हें सम्यग्ज्ञान कराने के लिए लिखा उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी। प्रत्येक कल्पार्ध में काल के छ:-छ: भाग हैं। इसके चतुर्थ काल में जैन धर्म के उपदेशक 24 तीर्थंकर
गया है। अर्थात् आचार्यश्री की दृष्टि में प्राणी मात्र इस ग्रंथ का होते हैं। जो तीर्थंकर जिस समय होते हैं उससे अगले तीर्थंकर की
उपयोग करने का अधिकारी है। अर्थात् इस ग्रंथ का कोई लौकिक दिव्यध्वनि (उपदेश) के पूर्व तक पूर्ववर्ती तीर्थंकर का शासनकाल
प्रयोजन नहीं है, अपितु पारमार्थिक और अलौकिक प्रयोजन है।83 कहलाता है। इसी आधार पर इस अवसर्पिणी काल के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर का शासन संप्रत प्रचलित है। और यही कारण है कि आचार्यश्री ने अंतिम तीर्थंकर श्री वीर को एवं उनकी वाणी को 79. जय वीयराय ! जगगुरु....1 -'जयवीयराय' सूत्र (२. गौतमस्वामी), दो नमस्कार किया है।
प्रतिक्रमण-सूत्र 18 जो उपदेश करता है वही गुरु होता है, यह सामान्य परम्परा
80. अ.रा.भा.1,2 मंगलाचरण
अ.रा.भा.1, उपोद्घात पृ.2 है। और इस प्रकार जैन मतानुयायियों के पारम्परिक गुरु भी भगवान
82. अ.रा.भा.5, मंगलाचरण महावीर है" । परंतु जिस आचार्य से दीक्षा ली जाये वे गुरु भी गुरु
83. अ.रा.भा.6, मंगलाचरण
81.
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