Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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[82]... द्वितीय परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
अभिधान राजेन्द्र कोश के पुष्पिकावचन )
भाग-3
"मत्तभ्रान्तविपक्षदन्तिदमने पञ्चाऽऽननग्रामणीराजेन्द्राभिधकोशसंप्रणयनात् संदीप्तजैनाऽऽगमः ।
संघस्योपकृतिप्रयोगकरणे नित्यं कृती तादृशो, धन्य- सरिपदाड़ितोविजयराजेन्द्रात्परोऽन्योऽस्तिकः?॥ और भाग-4
दुप्सभ्रान्तविपक्षदन्तिदमने पञ्चाऽऽननग्रामणी - राजेन्द्राभिधकोशसंप्रणयनात् संदीप्तजैनाऽऽगमः ।
संघस्योपकतिप्रयोगकरणे नित्यं कृती तादृशः, कोऽन्यः सूरिपदाङ्कितो विजयराजेन्द्रात्परः पुण्यवान् ?॥ अर्थ :
भाग 3 और भाग 4 के अंत में यह पुष्पिका संशोधकों ने लिखी है- ऐसा इसकी रचना से ज्ञात होता है, क्योंकि पुष्पिका में कहा है- उन्मत्त और अहंकारी विपक्षीरुपी हाथियों को दमन करने में केशरी सिंह के समान आचार्य विजय राजेन्द्रसूरिने इस अभिधान राजेन्द्र कोश के निर्माण से जैनागमों को प्रकाशित किया और संघ पर वैसा ही प्रत्यक्ष उपकार करने में हमेशा तत्पर हैं। भाग 3 की पुष्पिका के अनुसार अन्य कौन धन्य भागी है? अथवा भाग 4 की पुष्पिका के अनुसार आचार्य विजय राजेन्द्रसूरि के अतिरिक्त अन्य कौन एसा पुण्यावान् है ? अर्थात् (इस काल में) न तो ऐसा कोई जिनवाणी में आस्तिक धन्यभागी है और न कोई ऐसा पुण्यशाली है जो अभिधान राजेन्द्र कोश जैसी रचना करके और प्रतिवादियों के झुंड को जीतकर श्री संघ पर प्रगट उपकार करने में समर्थ हो। विशेष विमर्श:
इस पुष्पिका में संशोधकों का अभिप्राय यह है कि अभिधान राजेन्द्र प्राकृत महाकोश जैसे जैनागमों के समस्त शब्दों से परिपूर्ण कोश की रचना के लिए जिनेश्वर परमात्मा एवं उनकी वाणी अर्थात् जिनवाणी जिसमें संग्रहीत है, ऐसे जैनागमों
पर दृढ-श्रद्धा होना आवश्यक है। साथ ही एसे कोश की रचना श्रम साध्य और कष्ट साध्य तो है ही, इसके साथ ही कर्ता में शुद्ध सम्यक्त्व, अडिग श्रद्धा और ज्ञान का तीव्र क्षयोपशम, नैतिक-चारित्रिक बल भी आवश्यक है। जैनागमों का तलस्पर्शी ज्ञान, आवश्यक संदर्भ ग्रंथो की प्राप्ति, उनका वाचन-चिंतन-मनन-संशोधन, शब्द संकलन, ग्रंथ रचना हेतु उचित सामग्री की प्राप्ति आदि कठिनतम श्रम एवं इतने लम्बे समय तक धैर्य, गाम्भीर्य, दिव्य तप-साधना के अलावा असंभव सा है। क्योंकि ये सारे ग्रंथ अधिकांश ज्ञान भंडारों में सुरक्षित एवं समाज के अधिकार में रहते हैं, अत- इन्हें प्राप्त करने में समय भी ज्यादा लगता है और कठिनाईयाँ भी बहुत आती हैं। हस्तलिखित पत्रों की एक प्रति भी बडी मुश्किल से मिलती है।
आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजीने कोश रचना में संलग्न रहते हुए 14 वर्ष की दीर्ध समयावधि में अपने साध्वाचारों का चुस्तरुप से पालन करते हुए विहार, दीक्षा, प्रतिष्ठा, अंजन शलाका, संघ-यात्राएँ, तपश्चर्या, विपक्षियों से शास्त्रार्थ एवं संघ, समाज, और गच्छ के अन्य कार्य करते हुए, अन्य साहित्य का भी निर्माण किया, और ऐसी व्यस्त दिनचर्या में साधनों के अभाव के उस युग में इस ग्रंथराज जैसे अप्रतिम विश्वकोश का निर्माण किया।
ऐसा कठिन परिश्रमी, तीव्र ज्ञान के क्षयोपशम का स्वामी, ग्रंथरचना के सामर्थ्यवाला अनुपम पुण्यशाली और अकेले एक ही व्यक्ति इतने बडे विश्वकोश का निर्माण करने का सौभाग्यशाली हो - यह बात आज के कम्प्युटर युग में भी संभव नहीं है अतः संशोधकों ने कहा"धन्यः सूरिपदाङ्कितो विजय राजेन्द्रात्परोऽन्योऽस्ति कः?"
और कोऽन्यः सूरिपदाङ्कितो विजय राजेन्द्रात्परः पुण्यवान् !
अनुपम बीज
वीतरागता पर श्रद्धा अर्थात् दोषों के विजय पर श्रद्धा । यह श्रद्धा दोष-विजेताओं के प्रति भक्तिराग उत्पन्न करती है, जिससे आत्मा में जीवरुपी ताम्र को शुद्ध काञ्चन समान सर्व दोषरहित एवं सर्वगुणसहित शिवस्वरुप बनाने की शक्ति पैदा होती है। श्रुतधर्म में श्रद्धा यानी वीतराग प्ररुपित शास्त्रोक्त पदार्थों एवं तत्त्वों में विश्वास । उन पदार्थों और तत्त्वों को जानने-समजने से चारित्रधर्म की प्राप्ति होती है। चारित्रधर्म की श्रद्धा एवं उसके पालन के परिणाम स्वरुप शुभ और कल्याणकारी फल के प्रति अखण्ड विश्वास, - यह सद्भक्ति और सदाचरण की प्रेरणा का अनुपम बीज है।
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