Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन अभी तक व्याकरण शास्त्र पर जितने टीका ग्रंथ लिखे गये वे सब गद्य में हैं, जबकि यह टीका पद्य में है, यह इसकी अपनी विशेषता हैं। पद्य होते हुए भी यह टीका सरल, सुंदर एवं सुबोध
स्त्रीलिङ्ग
100
परिशिष्ट-2
परिशिष्ट-2 में श्रीसिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासन के आठवें अध्याय के अन्तर्गत आये हुए समस्त प्राकृत सूत्रों की संस्कृत भाषा के वर्णानुक्रम से अनुक्रमणिका दी है। साथ ही उन सूत्रों के व्याकरणस्थ क्रम भी दर्शाये हैं। संभवतया इसकी रचना प्राकृत व्याकृति के बाद हुई होगी अथवा संशोधकों ने इस रचना का श्रम उठाया हो - ऐसा भी हो सकता है क्योंकि 'अभिधान राजेन्द्र विशेषांकः शाश्वत धर्म' में प्रकाशित श्रीमद् राजेन्द्रसूरि वाड्मय में इसका उल्लेख नहीं हैं 1101
परिशिष्ट - 3
अभिधान राजेन्द्र कोश के प्रथम भाग में परिशिष्ट क्रमांक3 में 'संक्षिप्त प्राकृत शब्द स्पावलि' दी है। इसकी रचना वि.सं. 1961 में 'प्राकृत व्याकृति' के साथे ही कुक्षी चातुर्मास में की गयी हैं। 102 वर्तमान में जनता में प्राकृत भाषा का प्रचार नहीं रहने से आधुनिक अभ्यासियों को अभ्यास करते समय शब्दों शुद्ध रूप याद करने में अत्यधिक कठिनाइयों का सामना करना
पडता
हैं । अतः जैसा कि इसकी प्रशस्ति में स्वयं आचार्य विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजीने कहा है- जैन तथा जैनेतर सभी बालक इन्हें पढे, इसलिए मैंने यह प्राकृत-शब्द रुपावलि बनायी हैं 103 इस तरह इस रुपावलि का संकलन करके आचार्यश्रीने विद्यार्थियों के अभ्यासकाठिन्य को दूर कर दिया। इसमें प्रत्येक शब्द-विभक्ति पर अनेक वैकल्पिक रुप भी यथास्थान दिखलाये हैं।
प्राकृत शब्द रुपावलि के अन्तर्गत आये शब्द रुप - अकारान्त पुल्लिंग
वृक्ष
पुल्लिंग
गोपा
इकारान्त पुल्लिंग
गिरि
गामणी
ईकारान्त पुल्लिंग अकारान्त पुल्लिंग कारान्त पुल्लिंग
ऋकारान्त पुल्लिंग
नकारान्त राजन् शब्द
का अकारान्त
नकारान्त पुल्लिंग आत्मन्
शब्द का आकारान्त
सर्वादि गण के अकारान्त
पुल्लिंग शब्द
आकारान्त पुल्लिंग अकारान्त पुल्लिंग
पुल्लिंग में
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गुरु
खलपू
पितृ, भर्तृ
'राय' शब्द
'अप्पा' शब्द
सर्व
विश्व
उभय, अन्य, कतर,
अवर, इतर
यद्, तत्, एक शब्द के तीन रुप किम् एतद् इदम्, अदस् ।
:
प्रस्तुत रुपावलि में स्त्रीलिङ्ग में आकारान्त में रमा, इकारान्त
में रुचि, ईकारान्त में नदी, स्त्री (इत्थी), स्त्री (थी), उकारान्त में धेणु, अकारान्त में वधू (वहु), ऋकारान्त में मातृ (माआ), दुहितृ (दुहिआ), सर्वनाम :
स्त्रीलिङ्ग सर्वनाम में यद्' तद्, किं एतद् इदम् शब्द के दो-दो रुप (वैकल्पिक के साथ) एवं अदस् शब्द के रुप दिये हैं। नपुंसकलिङ्ग
द्वितीय परिच्छेद ... [87]
:
इस प्राकृत शब्द रुपावलि में आचार्यश्री ने नपुंसकलिङ्ग अकारान्त में मङ्गल, इकारान्त में वारि, उकारान्त में मधु, और सर्वनाम में यद्, एतद्, इदम्, अदस्, और किम् शब्द के रुप दिये हैं।
संख्यावाचि शब्दों में पञ्च, द्वि, त्रि, कति, चतुर् और सर्वनाम में युष्मद् एवं अस्मद् शब्दों के रुप दिये हैं ।
इस प्रकार आचार्यश्री ने इस रुपावलि में प्राकृत में पुल्लिंग में कुल 24 शब्दों के 26 रुप दिये हैं (एक शब्द के तीन रुप हैं) । स्त्रीलिङ्ग में 14 शब्दों के 20 रुप दिये हैं। और नपुंसकलिंग में 8 शब्दों के रुप दिये हैं। इस प्रकार कुल 46 शब्दों के 54 रुप इस प्राकृत शब्द रुपावलि में संकलित करके विद्यार्थी जगत् पर अनन्य उपकार किया हां। इस रुपावलि के अंत में संस्कृत में एक श्लोक प्रमाण पुष्पिका दी है जिसका वर्णन पूर्व में किया जा चूका हैं। अभिधान राजेन्द्रकोश : द्वितीय भाग
विषयवस्तु परिचय:
अभिधान राजेन्द्र कोश के भाग-२ के प्रारंभ में उपाध्याय श्री मोहन विजयजी द्वारा संस्कृत भाषा में लिखित प्रस्तावना दी गई
है । तत्पश्चात् भाग - २ के प्रारम्भ में ग्रन्थकर्ता आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने मंगलाचरण किया हैं मंगलाचरण :सिरिवद्धमाणवाणि, पणमिअ भतीइ अक्खरकमसो । सद्दे तेसु य सव्वं, पवयणवत्तव्वयं वोच्छं ||1|| मुख्य विषय वस्तु :
द्वितीय भाग में 'आ' वर्ण पृष्ठ क्रमांक एक से शुरु होकर 'आहोहिय' (आभोगिक) शब्द के साथ पृष्ठ क्रमांक 556 पर समाप्त होता है।
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'इ' वर्ण पृष्ठ क्र 557 से शुरु होकर पृष्ठ क्रमांक 679 पर 'इहलोगसंसप्पओग' (इहलोकासंसाप्रयोग) शब्द के साथ समाप्त हुआ है। और 'ईकार' पृष्ठक्रमांक 679 से शुरू होकर 'ईहिय' (ईक्षित) शब्द के साथ पृष्ठ क्रमांक 685 पर समाप्त हुआ हैं ।
100. श्रीमद् राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथः श्री राजेन्द्र खण्ड पृ. 89 अभिधान राजेन्द्र : विशेषांकः शाश्वत धर्म, पृ. 11 से 14
101.
102.
103.
वही
पठन्तु बालकाः सर्वे जैनानामितरे तथा । तस्मान्मयेयं प्राकृत - शब्दरुपावलिः कृताः ||1|| अ. रा. भा. 1 - परिशिष्ट-3, पृ. 18
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