Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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[78]... द्वितीय परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन की लहरों से भरे हुए जन्म-जरा-मरण-रुपी जलवाले संसार है इसीलिए उपाध्याय श्री मोहन विजयजीने 'धम्म' शब्द का परिचय सागर से तरते हैं, उसे तीर्थ कहते हैं।
देते हुए अपने कथन को विराम दिया है। वस्तुतः तो चतुर्थ भाग यहाँ पर तीर्थंकरों के तीर्थप्रवर्तन स्वरुप को बताते हुए असर्वज्ञत्व
में नकारादि शब्दों का विवेचन पूरा हो जाता हैं। के बारे में पूर्वपक्ष स्थापित किया गया है और फिर उसका खंडन विमर्श:किया गया है। इस विषय का विशेष वर्णन 'तित्थयर' शब्द पर
अभिधान राजेन्द्र कोश का क्लेवर इतना विस्तृत है कि किया गया है।
उसके प्रत्येक भाग का सामान्य एवं विशेष परिचय देना आवश्यक इसके आगे स्तव प्रकरणका विस्तार किया गया है कि द्रव्य
था। आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी ने जिस उद्देश्य से और स्तव और भाव स्तव - दो प्रकार के स्तव होते हैं। इनमें से साधुओं
जिस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु अभिधान राजेन्द्र कोश की रचना की है को और श्रावकों को कौन सा स्तव उपादेय होता है- इसकी सहेतुक
उसको यदि प्रस्तुति के माध्यम से न समझाया जाता तो अध्येताओं
और विद्वानों को इसके उपयोग की सही दिशा नहीं मिल पाती। चर्चा की गयी है। इसका विशेष विस्तार 'थय' शब्द के अन्तर्गत
प्रस्तुति चाहे स्वयं रचयिता के द्वारा की जाये या फिर संपादक देखना चाहिए, ऐसा संकेत दिया है।
या संशोधक के द्वारा की जाये, उसमें ग्रंथ का समग्र चित्र एकसाथ इसके आगे स्थविरकल्प (थविरकप्प) पर विचार किया गया
दृष्टिपथ में आ जाता है। अभिधान राजेन्द्र कोश के संशोधकद्वय मुनि हैं। यहाँ कहा गया है कि दो प्रकार के साधु होते हैं - गच्छप्रतिबद्ध
श्री दीप विजयजी एवं यतीन्द्र विजयजी का अपने गुरुदेव आचार्य और गच्छबहिर्गत । इन दोनों के पुनः दो-दो भेद होते हैं-जिनकल्पिक
श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के साथ प्रत्यक्ष सान्निध्य रहा है। और स्थविर कल्पिक। इन सब में क्या विशेषता हैं ? इसका संकेत
यही नहीं, संशोधकद्वय का इस ग्रंथ के लेखन में भी सक्रिय सहयोग भी यहाँ पर किया गया हैं। 72
रहा है। और ग्रंथ के प्रथम-प्रकाशन काल में इन्होंने ही इस ग्रंथराज इसके आगे द्रव्य-स्तव और भाव-स्तव का संकेत करते का संपादन एवं संशोधन भी किया है। हुए द्रव्य-गुण-पर्याय का जैन सिद्धांतानुसार विवेचन करते हुए यह
तात्पर्य यह है कि संशोधक द्वय के हृदय-कुम्भ अभिधान संकेत किया गया है कि वैशेषिक रीति से प्रतिपादित द्रव्य-सिद्धांत राजेन्द्र कोश के तत्त्व से पूर्ण भरे हुए थे, उन्हें इस ग्रंथ की आत्मा का खंडन 'दव्व' शब्द में देखना चाहिए।
का जितना साक्षात्कार हुआ होगा उतना अन्य किसी को हो सके, आगे दान प्रकरण का प्रारंभ करते हुए दीक्षा के अधिकारी यह असंभव सा प्रतीत होता है। का विवेचन किया गया है। 'दीक्षा' दुःख की निवारक कही गयी
हमने यहाँ कुछ पत्रों में ही सीमित सामग्री के माध्यम से है। इसी के साथ दुःख का स्वरुप बताते हुए गर्भ से लेकर आगे
उपलब्ध सभी प्रस्तावों का परिचय दिया है। अभिधान राजेन्द्र कोश
की विषय-वस्तु के परिचय के प्रसंग में यह संकेत कर दिया गया तक के दुःखों का संकेत किया गया है। चारों गतियों के दुःखों
है कि इस कोश का विभाजन सात ही भागों में हुआ है परंतु पांचवें, का संकेत करते हुए यह कहा गया है कि इसका विशेष विवरण
छठे और सातवें भाग में किसी भी शीर्षक से प्रस्तावना नहीं दी 'दुःख' शब्द के अन्तर्गत आया हुआ है।74
गयी है जबकि प्रथम भाग में तीन प्रकार से प्रस्ताव प्राप्त होता हैं : जिन वचनों में श्रद्धा-अश्रद्धा का प्रकरण प्रारंभ करते हुए
(1) प्रस्तावना (2) उपोद्धात और (3) द्वितीयावृत्ति प्रस्तावना । 'दोकिरिय' शब्द के अन्तर्गत आये हुए 'आर्यगङ्ग' के चरित्र का
इनमें से प्रस्तावना उपाध्याय श्री मोहन विजयजी (आचार्य श्रीमद् संक्षिप्त उल्लेख करते हुए जिनवचन में अश्रद्धा का उदाहरण दिया गया
विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के अन्तेवासी शिष्य) द्वारा हिन्दी भाषा में है। तत्पश्चात् जिनवचनों में श्रद्धा और जिनाज्ञा का पालन करना जैनों
70. ....येने ह जीवा जन्ममरणसलिलं मिथ्यादर्शनाविरतिगंभोरं का परम धर्म है - ऐसा प्रस्ताव रखते हुए 'धर्म' शब्द से लोक
महाभीषणकषायपातालं सुदुर्लध्यमोहाऽऽवर्तरौद्र विचित्रदुःखौधदुष्टश्वापदं में गृहीत दो अर्थों का संकेत किया गया है। सबसे पहले वस्तु का
रागद्वेषपवनविक्षोभितं संयोगवियो-गवीचीयुक्तं प्रबलमनोरथवेलाकुलं स्वभाव ही धर्म है - इस सिद्धांत का प्रतिपदान किया गया है।
सुदीर्घसंसारसागरे तरन्ति तत्तीर्थमिति ।-वही और इसके बाद क्रम प्राप्त मोक्ष के साधन भूत चारित्र स्म धर्म का 71. अथ द्रव्यस्तव-भावस्तवयोः...द्रष्टव्यं प्रज्ञावद्भिः ।-वही, पृ. 10, द्वितीय विस्तृत विवेचन किया गया है। यहाँ पर रात्रि भोजन त्याग का
अनुच्छेद भी संकेत किया गया है। जोकि जैन धर्म का प्रथम सोपान है।
वही, पृ.10, तृतीय अनुच्छेद
73. वैशेषिकरीत्या द्रव्यप्रतिपादनं, तत्खण्डनं च 'दव्य' शब्दे 2465 पृष्ठे द्रष्टव्यम् । किन्तु आजकल धर्म के नाम से अनेक मिथ्यामतों का
__-अ.रा.भा.4, पृ.4, घण्टापथ पृ.11 प्रचलन हुआ है, उस पर विचार करना चाहिए.7 ऐसा उल्लेख करते
74. अ.रा.भा.4, पृ.4, घण्टापथ पृ.11-12 हुए विभिन्न प्रचलित मतों के गुण-दोषों का वर्णन करते हुए धर्म .....द्विधा हि धर्मशब्दस्य प्रवृतिर्लोके विलोक्यते । तथाहि - सर्वत्र वस्तुनि ध्यान की कल्याणकारकता बताई गयीहै। इसका विस्तार 'धम्म' यद् वस्तुनः स्वभावः स धर्म उच्यते ...दुर्गतौ प्रपतन्तं जीवं धारयतीति शब्द के अन्तर्गत किया गया है। और अन्त में 'घण्टापथ' का धर्मं । -वही, पृ. 12, द्वितीय अनुच्छेद उपसंहार किया गया है।
76. .....अतः कान्तारे दुर्भिक्षे, ज्वराऽऽदौ महति समुत्पन्ने रात्रौ श्रमणाः सर्वाऽऽहारं यद्यपि 'धम्म' शब्द के बाद भी चतुर्थ भाग में अनेक शब्द
न भुञ्जते... वही, पृ.14
77. ....साम्प्रतमनेकानि धर्माभिधेयधुराधराणि मिथ्यात्विमतानि प्रचलितानि सन्ति, आये हैं लेकिन उनका परिचय सीधे ही 'अभिधान राजेन्द्र' से प्राप्त
ततो विवेक: कर्तव्यः। किया जा सकता है और इसे भूमिका में लिखना आवश्यक नहीं
-वही, पृ. 15, तृतीय अनुच्छेद
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