Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
द्वितीय परिच्छेद... [71] है और सभी जैन आम्नायों में समान रुप से स्वीकृत है। प्रायः सभी मंत्र - विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतः पाणिरुत विश्वतः पाद्।8' । दर्शनों ने प्रकारान्तर से 'स्याद्वाद' का प्रयोग तो किया है परंतु सिद्धांत
-इस मंत्र को भी उद्धृत किया गया है। अर्थात् वैदिक परम्परा के के रुप में स्वीकार नहीं किया। लोक में भी 'स्याद्वाद' सिद्धांत का
अनुयायी कहे जानेवाले दर्शनों के ईश्वर व्यापकत्व का सिद्धांत एक व्यवहार देखा जाता है।। | उपोद्धात में इसे एक रुपक के द्वारा समझाया
साथ ही प्रत्याख्यात किया गया है। गया हैएक राजा को एक पुत्र और एक पुत्री है। राजा की पुत्री
विपक्षियों के सिद्धांतो का खंडन करने के बाद भावेन्द्रिय के पास सोने का घडा है। पुत्र ने पिता से कहकर उसे तुडवाकर
और द्रव्येन्द्रिय के सिद्धांत के माध्यम से जैनदर्शन के उस सिद्धांत मुकुट बनवाया। घडे के नाश होने पर पुत्री को क्लेश हुआ, मुकुट
का प्रतिपादन किया गया है जिसमें छद्मस्थ संसारी जीव को कम बनने पर पुत्र को हर्ष हुआ। परंतु राजा यह सोचकर कि 'सोना तो
से कम मति ज्ञान और श्रुतज्ञान अवश्य होते हैं। यथावत् है", दोनों ही अवस्थाओं में निर्विकार रहा। यहाँ कलश
इस प्रकार उपोद्धात में जैनदर्शन के प्रमुख सिद्धांत अहिंसावाद का नाश पदार्थ के व्यय का संकेत करता है, मुकुट का निर्माण पदार्थ से प्रारंभ करते हुए स्याद्वाद का प्रतिपादन और सर्वथा एकान्तवादियों के उत्पादन का संकेत है, और स्वर्ण की यथास्थिति पदार्थ के ध्रौव्य के प्रमुख सिद्धांतो का खंडन करते हुए अंत में पुन: जैन दर्शन के का संकेत है। इस प्रकार एक ही पदार्थ में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य भाव-श्रुतज्ञान का प्रतिपादन करते हुए उपोद्घात का समापन किया - ये तीनों ही रहते हैं।
गया है। इसके साथ ही द्रव्य से नित्य और प्रमाण से अनित्य, एसे
अभिधान राजेन्द्र कोश : भाग 2 स्याद्वाद का आधार बताते हुए स्याद्वाद का महत्त्व बताया है।
इसके आगे उपोद्घात में वैशेषिकों के 'समवाय' पदार्थ प्रस्तावना:और 'सत्ता' का खंडन अन्ययोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिका और उसकी __ अभिधान राजेन्द्र कोश भाग-2 की प्रस्तावना उपाध्याय टीका 'स्याद्वादमञ्जरी' के अनुसार किया है। यहीं पर बौद्धों के श्री मोहन विजयजी द्वारा लिखी गयी है। प्रस्तावना में चार भाग 'अपोह' सिद्धांत का प्रत्याख्यान भी बडे विस्तार से किया गया
हैं। प्रस्तावना को प्रारंभ करते हुए सर्वप्रथम यह बताया गया है कि वर्णानुक्रम से प्राकृत भाषा पर इस प्रकार का कोई कोश उपलब्ध
नहीं था, और इसलिए सकल संघ के द्वारा अनुनय किये जाने 'अपौरुषेयत्वव्याघात' उपशीर्षक के अन्तर्गत वेदों की
पर इस श्रेष्ठ कोश की रचना हुई। यहीं पर अभिधान राजेन्द्र कोश अपौरुषेयता का खंडन स्याद्वादमञ्जरी के अनुसार किया गया है। न्याय
के निर्माण की पृष्ठभूमि का उल्लेख करते हुए यह भी कहा गया दर्शन के जगत्कर्तृत्व सिद्धांत का खंडन भी इसी क्रम में किया है। ।
है कि जैनदर्शन के जिज्ञासु विदेशी लोग जो कि बौद्धों 'शब्द आकाश का गुण है' - यह न्यायदर्शन का सिद्धांत
से जैनदर्शन को अलग न मानते हुए तत्त्व को नहीं समझ है। स्थूल रुप से देखने पर यह बहुत ही सुग्राह्य है क्योंकि मनुष्य ।
पा रहे हैं, उन्हें जैनदर्शन का रहस्य और बौद्ध दर्शन से में अधिकतम पांच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, जो क्रमशः शब्द, स्पर्श,रुप, रस
जैन दर्शन का भेद, दोनों में तुलनात्मक तरतमता ज्ञात और गंध -इन पांच विषयों का ग्रहण करती हैं । नैयायिक इन्हें क्रमशः हो सके, और जीव, अजीव आदि तत्त्वों को सूक्ष्म निरीक्षण आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी का विशेष गुण बताते हैं। इस बद्धि से समझने के लिए संबंधित शब्द में ही पूरी जानकारी तरह यथासंख्यस्थिति भी गणितीय सिद्धांत पर सही प्रतीत होती है।
उपलब्ध हो सके; थोडा सा भी श्रम न उठाना पडे - पुनश्च कर्णविवर को आकाश और कृष्णतारा (आंख की पुतली) के इसके लिए यह ग्रंथ उपयोगी है। अग्रभाग को तेज बताते हुए षड्दर्शन में इन्द्रियों की उत्पत्ति पांच
अभिधान राजेन्द्र कोश की उपयोगिता के विषय में जितना महाभूतों से बताते हुए 'तुल्ययोनीन्द्रियार्थग्रहण' के सिद्धांत से भी लिखा जाये उतना कम है। उपाध्यायश्री इसकी उपयोगिता के बारे यह सत्य प्रतीत होता है कि "शब्द आकाश का गुण ही है" परंतु
में आगे और भी लिखते हैं और बताते हैं कि आजकल प्रचलित सूक्ष्म निरीक्षण करने पर शब्द का गुणत्व खंडित हो जाता है, और
हिन्दी भाषा के जो शब्द हैं उनमें से कौन से शब्द परावर्तित होकर इसी कारण बहुत ही ठोस हेतुओं के आधार पर जैनदर्शन ने शब्द
के संस्कृत भाषा में प्राप्त होते हैं अथवा संस्कृत भाषा से परावर्तित को पौद्गलिक (मूर्त) सिद्ध किया है। यही बात उपोद्घात 11. अ.रा.भा.1, उपोद्घात, पृ. 3, 4 में 'शब्दाकाशगुणत्वखंडन' उपशीर्षक के अन्तर्गत कही गयी हैं।
12. "प्रध्वस्ते कलशे शुशोच तनया मौलौ समुत्पादिते, पुत्रः प्रीतिमुवाह कामपि
नृपः शिश्राय मध्यस्थताम् । शब्द के गुणत्व का खंडन करने के बाद संशोधक महोदय
पूर्वाकारपरिक्षस्तदपराकारोदयस्तद्वया-धारश्वैक इति स्थितं त्रयमयं तत्त्वं ने बादरायण व्यास द्वारा प्रवर्तित वेदांत दर्शन के अद्वैतवाद का खंडन तथा प्रत्यथात् ।।2।। - पञ्चाशत् से उद्धृत, अ.रा.भा.। उपोद्घात पृ.4 किया है।
13. अ.रा.भा.1, उपोद्घात, पृ. 4 का अंतिम अनुच्छेद, पृ.5
14. वही पृ. 5 का अंतिम अनुच्छेद, पृ. 6,7,8,9 नैयायिकों का जगत्कर्ता ईश्वर और अद्वैत वेदांतियों का ब्रह्म
15. वही 9,10 - दोनों ही सर्वव्यापक माने गये हैं। इस दृष्टि से न्याय दर्शन 16. वही, उपोद्घात पृ.। के और वेदांत दर्शन के सिद्धांतों के खंडन के बाद, 17. वही 11, 12
18. वही, 'ईश्वर व्यापकत्व खण्डनम्', पृ.13 ईश्वरव्यापकत्व का खंडन किया गया है। यहाँ पर वेदों के
19. वही, पृ. 13 का अंतिम अनुच्छेद
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