Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
द्वितीय परिच्छेद... [61]
4. अभिधान राजेन्द्र कोश की रचना का उद्देश्य एवं पृष्ठभूमि
यं तो आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरि को अपने यति/मुनि जीवन में ही अध्यापन एवं शास्त्रार्थ के कई ऐसे अनुभव प्रसंग उपस्थित हुए जिसमें अन्य लोगों के द्वारा शब्द के गलत अर्थ किये जाते जो आपको कतई पसंद नहीं थे और आप उसी समय उन्हें शास्त्र-सम्मत सही अर्थ समझाते। इस तरह आचार्यश्री की व्यक्तिगत आवश्यकता के रुप में यह कोश नहीं बनाया गया होगा - इतना तो निश्चित हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश की रचना की पृष्ठभूमि विषयक दो पृथक् पृथक् कथानक प्राप्त होते हैं1. विदेशी विद्वानों से प्रेरित होकर जिज्ञासुओं के हितार्थः- भाषा में उनका अनुवाद, लिङ्ग, व्युत्पत्ति, और वाच्यार्थ को रखकर आचार्य श्रीमद् विजय जयन्तसेन सूरि के प्रवचनानुसार
उसके साथ ही तत्समबन्धी यथाप्राप्त प्राचीन टीका, चूर्णि आदि उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में प्राकृत भाषा और जैन परम्परा एवं
का विवरण देकर इसे स्पष्ट किया जाये । यदि वही विषय ग्रंथान्तर बौद्ध परम्परा के आगम ग्रंथों का अध्ययन द्रुतगति से बढता जा
में प्राप्त हो तो उसके साथ उसका भी निर्देश किया जाये, तो प्रायः रहा था। और इंग्लेन्ड, फाँस, जर्मनी आदि देशों के विद्वान संस्कृत ___ हमारे द्वारा निजमनोनुकूल लोकोपकार होगा।" और प्राकृत ग्रंथो का अध्ययन करने लगे थे। जर्मनी में भारतीय
वि.सं. 1946 में आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी विद्याओं और विशेषकर जैन आगम ग्रंथों का गहराई से अध्ययन का चातुर्मास राजस्थान के जालोर जिले के 'सियाणा' नगर में हुआ। किया जा रहा था। उस समय उन विद्वानों को पारिभाषिक शब्दों
उन्होंने देखा की वर्तमान में जिनागमों के अर्थ का मर्म का अर्थज्ञान सम्यक् रुप से नहीं हो रहा था। उस समय ज्ञानपिपासु लोग नहीं समझ पा रहे हैं और इसलिए कुछ लोग जैनागमोक्त शब्दों कुछ विद्वान् भारत आये और गुजरात प्रांत के अहमदाबाद नगर
के अर्थों का आगमों से विपरीत निरुपण भी कर रहे थे। और देशी में आ पहुंचे। आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी भी उस और विदेशी विद्वानों को जिनगामों का अध्ययन करने में असुविधा समय अहमदाबाद में ही विराजमान थे। इन आंगतुक विद्वानों का होने का ज्ञान आचार्यश्री को था, इसलिए उनके मन में ये विचार सम्पर्क आचार्यश्री से हुआ और उनकी जैन पारिभाषिक एवं आगमिक बार-बार आते थे कि कुछ ऐसा प्रयत्न होना चाहिए जिससे जिज्ञासुओं शब्दावली संबंधी सभी शंकाओं का समाधान आचार्यश्रीने कर को अर्थ समझने में किसी प्रकार की कठिनाई न हो। दिया। तब उन्होंने आचार्यश्री से पूछा कि "क्या ऐसा कोई जैन 2. आगमों की रक्षा हेतु :पारिभाषिक शब्द कोश नहीं है जो हमारा मार्गदर्शक बने ?" प्रत्युत्तर
उपाध्याय श्री मोहन विजयजी, जो कि उस आप्तशिष्यों में आचार्यश्री को कहना पडा, "अभी तो नहीं है।"
की स्वाध्याय मण्डली में उस समय वहाँ शामिल थे - के अनुसार अभिधान राजेन्द्र कोश के संशोधकों के अनुसार वि.सं. "एक बार आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी अपने आप्त शिष्यों 1940 की इस घटना के पश्चात् आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने के साथ बैठे हुए थे। वहाँ उन्होंने सभी के समक्ष अपनी यह अभिलाषा अनुभव किया कि कोई प्राकृत प्रकाश आदि व्याकरण के ज्ञाता भी रखी कि "मैं एक नवीन रीति का कोश बनाना चाहता हूँ जिसमें जैनागमों के मूल-सूत्र, नियुक्ति की गाथाएँ और चूर्णि प्रमुख के तात्पर्य जैनागमों का विशेष युक्ति से संयोजन हो और जो कि जिनेन्द्र (स्पष्ट पारिभाषिक अर्थ) अवधारण करने में समर्थ नहीं हो सकता भाषामय आगमों के सदा विद्यमान रहने और कभी भी लुप्त न क्योंकि तीर्थंकर-गणधरादि के द्वारा यह सब अर्ध-मागधी भाषा में होने का उपाय हो।"गुरुदेव की इस इच्छा को सुनकर सभी शिष्योंने ही कहा गया है जो कि सामान्य प्राकृत भाषा से कुछ अलग ही गुरुवर के अनुशासन को शिरोधार्य किया। है। प्राचीन काल में गुरु-शिष्य परम्परा से अंतेवासी शिष्यगण कठिन
आचार्य श्रीमद् विजय जयन्तसेन सूरि के अनुसार इस चर्चा परिश्रम द्वारा अपने-अपने आचार्य के मुख से 'मधुबिन्दु निकर' समान के पश्चात् रात्रि के द्वितीय प्रहर में वे आत्म-चिन्तन में लीन हो सूत्रों और उनके अर्थो को कण्ठस्थ करते थे। परंतु वर्तमान में बुद्धिविकलता गए। उस समय आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी को अंत:प्रेरणा
और रत्नत्रयी के क्रमिक इस से ऐसी परिपाटी नहीं है, अत: आचार्य हुई और उन्होंने एक भगीरथ कार्य को संपन्न करने का निश्चय किया। श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी को एसी चिन्ता हुई कि प्रतिदिन यह महान कार्य था- जैन साहित्य के समस्त आगम ग्रंथ, प्रकरण जैन धार्मिक-दार्शनिक शास्त्रों की हानि ही हो रही है। बहुत से ग्रंथ, प्रकीर्णक ग्रंथ आदि ग्रंथो में उपलब्ध सामग्री को एक ही ग्रंथ अपने आपको सुज्ञ मानने वाले लोगों ने निज-स्वार्थ हेतु उत्सूत्र प्ररुपण में उपलब्ध करा देना । अर्थात् जिनवाणी विषयक एक ऐसा शब्दकोश भी करना शुरु किया है और अपने धर्मग्रंथों के विषय में विस्मरण निर्मित करना, जिसमें जिनागम विषयक संपूर्ण सामग्री विद्यमान ही हुआ है। ऐसे समय में क्या किया जाये, जिससे यथाशक्ति आत्मधर्म (जैन धर्म) की उन्नति करके अपने मनुष्य जन्म को सार्थक किया
1. अ.रा.भा.1, उपोद्घात, पृ. 1 अंतिम अनुच्छेद एवं पृष्ठ 2 का प्रथम, द्वितीय जाय।।
एवं तृतीय अनुच्छेद इस प्रकार के विचार करते बहुत समय पसार हो गया तब 2. अ.रा.भा.1, उपोद्घात, पृ. 2 तृतीय अनुच्छेद सहसा एक विचार उत्पन्न हुआ कि "कोई एक ऐसे ग्रंथ की इस 3. - अ.रा.भा. 4, घण्टापथ 'ग्रन्थनिर्माणकारणम्', पृ. 17, उपाध्याय प्रकारकी शैली से रचना की जाये,जिसमें जैनागमों के अर्धमागधी
श्रुत्वा पुनस्तमुपदेशवरं प्रहृष्टा मूर्नाऽग्रहीषत गुरोरनुशासनं तत्। -वही
' पृ. 12 भाषा के शब्दों को अकारादि वर्णानुक्रमपूर्वक रखकर संस्कृत
5. अ.रा.भा.1, उपोद्घात, पृ. 2
हो
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