Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
द्वितीय परिच्छेद... [57] _शब्दकोशों की परम्परा में अभिधान राजेन्द्र यथार्थ में एक विशिष्ट उपलब्धि है। श्रीमद् की साधना का यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उदाहरण है। जब इस कोश का पहला अक्षर लिखा गय तब वे 63 (तिरसठ) साल के थे। सात भागों में तथा 10566 पृष्ठों में प्रकाशित यह कोश वस्तुतः एक विश्वकोश के समान है जिसमें जिनागमों तथा विभिन्न दार्शनिक ग्रंथों के उद्धरण संकलित कर विस्तृत विवेचन किया गया है।
__-वसंतीलाल जैन, पुणे (महाराष्ट्र) अभिधान राजेन्द्र कोश जैसे अतिविशाल ग्रंथरत्न की रचना उनके सम्यग्ज्ञान के सर्वांगी समर्पण की साहसिक निष्पत्ति है। अन्यथा असंभव सा यह कार्य उनसे होता ही नहीं। अभिधान राजेन्द्र कोश सामान्य कोश नहीं है किन्तु शास्त्र-वचनों की समीचीन अभिव्यक्ति और अर्थघटन का सर्वश्रेष्ठ सहायक माध्यम है।
_ - रमेश आर. झवेरी विश्व पूज्य श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. साहित्याकाश में एक सूर्य समान उदित हुए, जिन्होंने अपनी ज्ञान ज्योति का प्रकाश संपूर्ण ज्ञान जगत में फैलाया। संस्कृत, प्राकृत, शौरसेनी एवं अन्य भाषाओं के साहित्य को समृद्ध बनाया। राजेन्द्रकोश' रचना एक अक्षय विशाल ज्ञानसागर है एवं यह युगों-युगों तक साहित्य निर्माण में मार्गदर्शन करता रहेगा।
__-पं हीरालाल शास्त्री (एम.ए.), निवर्तमान संस्कृत व्याख्याता,
शिक्षा सेवा, राजस्थान ज्योतिष सेवा, राजेन्द्रनगर, जालोर (राजस्थान) तपः साधना और ज्ञानमीमांसा से परमपूत जैनधर्माचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. का राजेन्द्र कोश इनकी अक्षय शब्द मंजूषा है, जो शब्द यहाँ नहीं है, वह अन्यत्र कहीं नहीं है।
- पं. जयानंद झा, उघ-12 मधुवन हा.बो. बासनी, जोधपुर (राजस्थान) भारतीय वाङ्मय में 'अभिधान राजेन्द्र कोश' एक अद्वितीय, विलक्षण और विराट् कीर्तिमान है जिसमें संस्कृत, प्राकृत, एवं अर्धमागधी की त्रिवेणी भाषाओं और उन भाषाओं में प्राप्त विविध परम्पराओं की सक्तियों की सरल और साड़गोपांग व्याख्याएँ है और दार्शनिक संदर्भो की अक्षय सम्पदा है। लगभग 60 हजार शब्दों की व्याख्याओं एवं साढे चार लाख श्लोकों के ऐश्वर्य से महिमामंडित यह ग्रंथ जैन परम्परा एवं समग्र भारतीय विद्या का अपूर्व भण्डार हैं।
-डो. लक्ष्मीमल सिंधवी, भूतपूर्व भारत-ब्रिटेन राजदत, नई दिल्ली जब परम त्यागी, आदर्श संयमी, सुदृढ महाव्रती, प्रकाण्ड विद्वान राजेन्द्रसूरि अपने मानवीय जीवन के साठ से भी अधिक वसंत देख चुके तब उन्होंने 14 वर्षों में अभिधान राजेन्द्र कोश का निर्माण किया। जिसके संदर्भ में 97 ग्रंथों के प्रासंगिक सार का संचयन किया। अभिधान राजेन्द्र कोश विश्व-साहित्य की वह अमूल्य निधि है जिसकी समानता अन्य कोश आज तक नहीं कर सका। इसने अपनी उपस्थिति से विश्वविद्यालयों के पुस्तकालयों को केवल गौरव-गरिमा ही नहीं दी बल्कि शताधिक शास्त्र अनुसंधान कर्ताओ को शोध-बोध की दिशा में आशातीत मार्गदर्शन दिया।
अर्ध-मागधी भाषा को पुनरुज्जीवित करने का श्रेय इस कोश को हैं। इसने अपने आकार, प्रकार-भार से बतला दिया कि शब्दकोशों की श्रृंखला में इसकी एक अपनी ही मौलिक उपलब्धि है, जो कोश-माला में सुमेरु है। इसकी विराटता और व्यापकता, धर्म और सभा की समन्वयात्मकता, अनुभवगम्य होकर अवर्णनीय बनी है। यह जैनागमों के साथ अन्य दार्शनिक ग्रंथों के उद्धरणों को भी आत्मसात् किए हैं। इसमें व्याख्या-भाग पर्याप्त है। कई शब्दों की व्यवस्था के संदर्भ में शताधिक कथानक भी संग्रहीत हो कोश की नीरसता की इतिश्री कर कोश के प्रति आकर्षण की अभिरुचि को बढा रहे हैं। इसमें शब्दों की जो निरुक्ति दी गयी है, उससे भाषा के भण्डार को समझने व सहेजने में सुविधा होती है। यह शब्द कोश शब्द संग्रह नहीं है, बल्कि इस शब्द कोश में ऐसे शब्दों की प्रचुरता है जिससे धर्म और दर्शन की अनुभूति में अभिवृद्धि होती है और शब्दों का जीवन सुदूरगामी सहस्रशताब्दियों जैसा विदित होता है। मागधी भाषा के अनुक्रम से शब्दों पर विषयों का विस्तृत विवरण इस कोश में उपलब्ध है।.... अपने शिखरस्थ अनुभव-अभ्यास का परिचय उन्होंने कोश में दिया।....अभिधान राजेन्द्र कोश निर्मित कर अपनी वीतरागता और अनासक्ति की जो अभिव्यक्ति की, उसे विश्व के सभी विद्वानों ने शिरोधार्य किया।
-श्री लक्ष्मीचन्द्र 'सरोज' एम.ए.,
शाश्वत धर्म - अ.रा. विशेषांक फरवरी - 1990 पृ. 24 राजेन्द्र कोश जब जेवर बेचकर खरीदा....
प्राकृत शौरसेनी भाषा के अधिकारी विद्वान् पं. हीरालालजी घोर विद्याव्यसनी थे। उनकी आर्थिक स्थिति कमजोर थी। जैन पं. के वेतन से तब रोटी खर्च ही चलता था। तभी पण्डित जी को पता चला कि सात भागों में बृहत्प्राकृत कोश 'अभिधान राजेन्द्र कोश' नाम से प्रकाशित हुआ है। पण्डितजी की प्रबल इच्छा थी कि यह कोश किसी प्रकार सुलभ हो जाये। उन्होंने अल्प वेतन में से थोडाथोड़ा पैसा जोडा था परन्तु इतने से तो कोश का एक भाग भी नहीं खरीदा जा सकता था। वे जिस संस्था में कार्य करते थे उसके मंत्री से कोश खरीदने के लिए निवेदन किया परन्तु मन्त्री को कोश का इतनी भारी व्यय फिजूल लगा। पण्डित जी निराश हुए लेकिन शब्दकोश लेने का निर्णय कर लिया और अपनी पत्नी के गले, हाथ, पैरों के जेवर बेचकर कोश के सातों भाग एक साथ खरीद लिये।
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