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प्रथम अध्ययन
सामायिक सामायिक अर्थात् आत्मस्वरूप में रमण करना, सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप में तल्लीन होना। सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप ही मोक्षामार्ग है। मोक्षमार्ग में सामायिक मुख्य है, यह बताने के लिए ही सामायिक अध्ययन को सबसे प्रथम रखा गया है।
भगवती सूत्र शतक 1 उद्देशक 9 में फरमाया है कि-'आया सामाइए, आया सामाइयस्स अट्टे अपने शद्ध स्वरूप में रहा हआ आत्मा ही सामायिक है। शद्ध, बद्ध, मुक्त चिदानंद स्वरूप आत्मतत्व की प्राप्ति करना ही सामायिक का प्रयोजन है। 'मेरा स्वरूप कैसा है?' आदि विचारों में तल्लीन होना, आत्मगवेषणा करना सामायिक है। अनुयोगद्वार सूत्र में सामायिक व्रत क्या है? इसकी परिभाषा बताते हुए कहा है
"जो समो सव्वभूएसु, तसेसु थावरेसु य।
___तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलि भासियं ।।" अर्थात् जो त्रस और स्थावर सभी जीवों को अपनी आत्मा के समान मानता है, सभी प्राणियों पर समभाव रखता है, उसी का सच्चा सामायिक व्रत है, ऐसा केवलज्ञानियों ने फरमाया है।
सामायिक के आध्यात्मिक फल के विषय में उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन 29 में गौतमस्वामी प्रभु महावीरस्वामी से पूछते हैं कि-“सामाइएणं भंते! जीवे किं जणयइ?'
अर्थात् हे भगवन्! सामायिक करने से जीव को क्या लाभ होता है? भगवान ने फरमाया-“सामाइएणं सावज्जजोगविरइंजणयइ।"
सामायिक करने से सावध योग से निवृत्ति होने पर आत्मा पूर्ण विशुद्ध और निर्मल बन जाती है यानी मोक्ष पद को प्राप्त कर लेती है।
सामायिक की साधना उत्कृष्ट है। सामायिक के बिना आत्मा का पूर्ण विकास असंभव है। सभी धार्मिक साधनाओं के मूल में सामायिक रहा हुआ है। जैन संस्कृति समता प्रधान है। समता भाव की दृष्टि से ही सामायिक अध्ययन को प्रथम स्थान प्राप्त है। सामायिक आवश्यक
षडावश्यक में सामायिक का प्रथम स्थान है। वह जैन आचार का सार है। सामायिक श्रमण और श्रावक दोनों के लिए आवश्यक है। जितने भी साधक हैं वे जब साधना का मार्ग स्वीकार करते हैं तो सर्वप्रथम