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तृतीय अध्ययन
वंदना उत्तराध्ययन सूत्र के अध्ययन 29 में गौतमस्वामी भगवान महावीर से पूछते हैं कि
वंदणएणं भंते! जीवे किं जणयइ? हे भगवन्! वंदना करने से आत्मा को क्या लाभ होता है? उत्तर में भगवान महावीर स्वामी फरमाते हैं कि-"वंदणएणं नीयागोयं कम्मंखवेइ। उच्चागोयं कम्मं निबंधइ, सोहगंचणं अप्पडिहयं आणाफलं निव्वत्तेइ। दाहिणभावं च णं जणयइ।"
अर्थात्- वंदना करने से जीव नीच गोत्र कर्म का क्षय करता है, उच्च गोत्र का बंध करता है। सुभग, सुस्वर आदि सौभाग्य की प्राप्ति होती है। सभी उसकी आज्ञा स्वीकार करते हैं और वह दाक्षिण्य भावकुशलता एवं सर्वप्रियता को प्राप्त करता है।
दूसरे अध्ययन में सावध योग की निवृत्ति रूप सामायिक व्रत के उपदेशक तीर्थङ्करों का गुणोत्कीर्तन किया गया है। तीर्थङ्करों से उपदिष्ट वह सामायिक व्रत गुरु महाराज की कृपा से प्राप्त हो सकता है इस कारण गुरुवंदना ही प्रतिक्रमण करने का शिष्टाचार होने से गुरुवंदना करना आवश्यक है। अतएव अब वंदनाध्ययन नामक तीसरा अध्ययन प्रारंभ करते हैं-इच्छामि खमासमणो।
जो व्यक्ति अपने इष्ट देव-तीर्थङ्कर भगवन्तों की स्तुति करता है, गुण-स्मरण करता है, वही तीर्थङ्कर भगवान के बताए हुए मार्ग पर चलने वाले, जिनवाणी का उपदेश देने वाले गुरुओं को यथाविधि भक्तिभाव पूर्वक वंदन-नमस्कार कर सकता है अतएव चतुर्विंशतिस्तव के बाद वंदना अध्ययन को स्थान दिया गया है।
इच्छामि खमासमणो मूल- इच्छामि खमासमणो! वंदिउं जावणिज्जाए निसीहियाए अणुजाणह
मे मिउग्गहं, निसीहि, अहो कायं काय-संफासं खमणिज्जो भे!