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[आवश्यक सूत्र अर्थात् सम्यग्दर्शन आदि आध्यात्मिक गुणों की प्राप्ति को आय कहते हैं और शातना का अर्थ खण्डन करना है। पूज्य पुरुषों (गुरुदेवादि) का अपमान करने से सम्यग्दर्शन आदि सद्गुणों की खण्डना होती है। श्रुत देवता-तीर्थङ्कर अथवा गणधर भगवान को श्रुतदेवता कहा जाता है। वाचनाचार्य की आशातना-वायणायरियो नाम जो उवज्झाय संदिट्ठो उद्देसादि करेइ, अर्थात् वाचनाचार्य उपाध्याय के नीचे श्रुतोपदेष्टा के रूप में एक छोटा पद है । उपाध्याय की आज्ञा से यह पढ़ने वाले शिष्यों को पाठ रूप में केवल श्रुत का उद्देशादि करता है।
मूल
पंचमं समणसुत्तं
(निर्ग्रन्थ प्रवचन का पाठ) नमो चउवीसाए तित्थयराणं उसभाइ-महावीर-पज्जवसाणाणं इणमेव निग्गंथं पावयणं सच्चं, अणुत्तरं, केवलियं, पडिपुण्णं, नेयाउयं, संसुद्धं, सल्लगत्तणं, सिद्धिमग्गं, मुत्तिमग्गं, निज्जाणमग्गं, निव्वाणमग्गं, अवितहमविसंदिद्धं, सव्वदुक्खप्पहीणमग्गं । इत्थं ठिया जीवा सिझंति, बुज्झंति, मुच्चंति, परिनिव्वायंति, सव्वदुक्खाणमंतं करेंति। तं धम्मं सद्दहामि, पत्तियामि, रोएमि, फासेमि, पालेमि, अणुपालेमि, तं धम्मं सद्दहतो, पत्तिअंतो, रोयंतो, फासंतो, पालंतो, अणुपालंतो, तस्स धम्मस्स केवलिपन्नत्तस्स अब्भुडिओमि आराहणाए विरओमि विराहणाए। असंजमं परियाणामि, संजमं उवसंपज्जामि, अबंभं परियाणामि, बंभं उवसंपज्जामि, अकप्पं परियाणामि, कप्पं उवसंपज्जामि, अन्नाणं परियाणामि, नाणं उवसंपज्जामि, अकिरियं परियाणामि, किरियं उवसंपज्जामि, मिच्छत्तं परियाणामि, सम्मत्तं उवसंपज्जामि, अबोहिं परियाणामि, बोहिं उवसंपज्जामि, उम्मग्गं परियाणामि, मग्गं उवसंपज्जामि, जं संभरामि, जं च न संभरामि, जं पडिक्कमामि, जं च न पडिक्कमामि, तस्स सव्वस्स देवसियस्स अइयारस्स पडिक्कमामि। समणोऽहं संजय-विरय-पडिहयपच्चक्खाय-पावकम्मो, अनियाणो, दिविसंपण्णो, माया-मोस विवज्जिओ। अड्डाइज्जेसु दीवसमुद्देसु पण्णरस कम्मभूमिसु जावंत