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परिशिष्ट-4]
227} नहीं माना गया- पक्खी, चौमासी या संवत्सरी को भी नहीं माना गया । ज्ञातासूत्र के पंचम अध्याय में शैलक जी की प्रमत्तता के निराकरण हेतु पंथक जी का चौमासी प्रतिक्रमण हेतु पुनः आज्ञा लेना, दोष निराकरण में समर्थ अस्थित कल्प वालों के प्रतिक्रमण का उदाहरण है। प्रथम
और अन्तिम तीर्थङ्कर के शासन में जड़ता, वक्रता आदि से उभयकाल प्रतिक्रमण भी आवश्यक है। केवल पाठोच्चारण को अनुयोगद्वार सूत्र द्रव्य प्रतिक्रमण बता रहा है-भूल सुधार की भावना सहित तच्चित्ते तम्मणे' आदि में ही भाव प्रतिक्रमण बता रहा है। प्रतिक्रमण का हार्द उपलब्ध हो जाता है-'पडिक्कमणेणं वयछिद्दाणि पिहेइ'भूल-व्रत के छेद सुधार-छिद्र आवरित करना, ढकना। समस्त संवर, सामायिक, व्रत ग्रहण (पाप त्याग वाले व्रत) में 'तस्स भंते ! पडिक्कमामि निंदामि' अवश्यमेव ही आता है अर्थात् भूल एवं दोषयुक्त प्रवृत्ति को तिलांजलि देने पर ही व्रत प्रारम्भ हो सकता है और यह प्रतिक्रमण अनेक अवसर पर करता हुआ साधक आत्मोत्थान करता ही है- इसी का नाम भूल सुधार का संकल्प है और यह किसी अपेक्षा से प्रतिक्रमण है, हितकारी है। पर इसकी ओट में अर्थात् इसे प्रतिक्रमण की श्रेणि में रखकर उभयकाल प्रतिक्रमण नहीं करना किंचित् मात्र भी अनुमत नहीं। भूल ध्यान में आते ही सुधार का संकल्प ले यथासमय प्रतिक्रमण में पुनः उस भूल का मिच्छामि दुक्कडं देकर किये हुए संकल्प को परिपुष्ट करना, सुदृढ़ करना
सर्वोत्तम मार्ग है। प्रश्न 214. जलचर जीव पानी में रहकर सामायिक-प्रतिक्रमण किस प्रकार कर सकते हैं? उत्तर अपने मन में सामायिक आदि पालने का निश्चय कर ये जलचर जीव जब तक सामायिकादि व्रत
का काल पूर्ण न हो जावे तब तक हलन-चलन नहीं करते, निश्चल रहते हैं और इस प्रकार
उनके द्वारा यह व्रत पाला जाता है। प्रश्न 215. आवश्यक सूत्र से तप के 12 भेदों में से किन-किन का आराधन होता है और कैसे? उत्तर आवश्यक सूत्र से तप के 12 भेदों में से निम्नलिखित तपों के प्रत्यक्ष आराधन होने की संभावना
है-1. कायक्लेश 2. प्रतिसंलीनता 3. प्रायश्चित्त 4. विनय 5. स्वाध्याय 6. ध्यान 7. कायोत्सर्ग। 1. कायक्लेश-आवश्यक सूत्र करते हुए कायोत्सर्ग मुद्रा, उकडू आदि आसन हो जाते हैं, जो
कि कायक्लेश तप के प्रकार हैं।