Book Title: Aavashyak Sutra
Author(s): Hastimalji Aacharya
Publisher: Samyaggyan Pracharak Mandal

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Page 291
________________ परिशिष्ट-5] 255} एकत्व और अनित्य भावना एगोऽहं नत्थि मे कोई, नाहमन्नस्स कस्सइ। एवं अदीणमणसो, अप्पाणमणुसासइ ।।11।। एगो मे सासओ अप्पा, नाणदंसणसंजुओ। सेसा मे बाहिराभावा, सव्वे संजोगलक्खणा ।।12 ।। संजोगमूला जीवेण, पत्ता दुक्खपरंपरा । तम्हा संजोग संबंध, सव्वं तिविहेण वोसिरिअं ।।13।। मुनि प्रसन्नचित्त से अपने आपको समझाता है कि मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है और मैं किसी दूसरे का नहीं हूँ। सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन उपलक्षण से सम्यक् चारित्र से परिपूर्ण मेरा आत्मा ही शाश्वत है, सत्य सनातन है, आत्मा के सिवाय अन्य सब पदार्थ संयोग मात्र से मिले हैं। जीवात्मा ने आज दिन तक दुःख परम्परा प्राप्त की है, वह सब पर पदार्थों के संयोग से ही प्राप्त हुई है, अतएव मैं संयोग सम्बन्ध का सर्वथा परित्याग करता हूँ। क्षमापना खमिअ खमाविअ मइ खमहं, सव्वह जीवनिकाय । सिद्धह साख आलोयणाए, मुज्झह वइर न भाव ।।14।। सव्वे जीवा कम्मवस, चउदह राज भमंत । ते मे सव्व खमाविआ, मुज्झ वि तेह खमंत ।।15।। हे जीवगण! तुम सब खमतखामणा करके मुझ पर क्षमाभाव करो । सिद्धों की साक्षी रखकर आलोचना करता हूँ कि मेरा किसी से भी वैरभाव नहीं है। सभी जीव कर्मवश चौदह रज्जु प्रमाण लोक में परिभ्रमण करते हैं, उन सबको मैंने खमाया है। अतएव वे सब मुझे भी क्षमा करे। मिथ्यादुष्कृत जं जं मणेण बद्धं, जं जं वाएणं भासियं पावं । जं जं काएण कयं, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ।।16।।

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