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परिशिष्ट- 4 ]
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स्थान की समस्या होने पर सामूहिक करते हुए भी अपने-अपने अतिचारों के चिन्तन रूप प्रथम आवश्यक में मीन-ध्यान के साथ एकान्त हो ही जाता है। प्रथम आवश्यक में अपने-अपने ध्यान लिये हुए दोषों को चतुर्थ आवश्यक में सामूहिक उच्चारण में साधक अपनी जागृति साथ तद्-तद् अतिचारों का अन्तर से मिथ्या दुष्कृत करता है और विस्मृत हो जाने से ध्यान नहीं रहे हुए शेष अतिचारों का भी मिच्छामि दुक्कडं करते हुए शुद्धि करता है। स्तुति-वंदना आदि में सामूहिक उच्चारण से वातावरण की पवित्रता के साथ भावों में भी उत्कृष्टता आती है, प्रेरणा भी जगती है अतः आत्म-साधना की इस प्रणाली को भी अनुपादेय कहना उचित नहीं। हाँ, पर सामूहिक पर ही एकान्त जोर दे वैयक्तिक करने से रोकना युक्तिसंगत नहीं। संघ की शोभागौरव के लिए एक सामूहिक प्रतिक्रमण हो व वैयक्तिक करने वालों को अपनी साधना करने की स्वतंत्रता हो । अलग-अलग समूह में सामूहिक अधिक होने पर विडम्बना खड़ी हो सकती है।
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प्रश्न 217. निम्न साधनापरक वाक्यों की आवश्यक सूत्र के संदर्भ में व्याख्या कीजिए - 1. की हुई भूल को नहीं दोहराने से बड़ा कोई प्रायश्चित्त नहीं ।
2. निर्दोषता (संबंधित दोष की अपेक्षा) के क्षण में ही दोष ध्यान में आता है।
3. जो इन्द्रिय और मन के वश में नहीं होता है उसके ही भाव आवश्यक होता है ।
4. आत्मसाक्षी से धर्म होता है। आंतरिक इच्छा से वन्दना, प्रतिक्रमण आदि होते हैं। 5. अपने सदाचार के प्रति स्वाभिमान पूर्ण, गम्भीर वाणी से साधकभाव की जागृति होती है । 6. प्रभो ! मैं तुम्हारा अतीतकाल हूँ, तुम मेरे भविष्यकाल हो, वर्तमान में मैं तुम्हारा अनुभव करूँ, यही भक्ति है ।
7. खामेमि सव्वे जीवा-क्रोध विजय, सव्वे जीवा खमंतु मे मान विजय, मित्ती मे सव्वभूएसमाया विजय, वेरं मज्झं न केणइ - लोभ विजय का उपाय है।
उत्तर
8. रसोइये को अपने समान भोजन नहीं करा सकने वालों को, रसोइये से भोजन नहीं बनवाना चाहिए। लालसा भरी दृष्टि के कारण, उनका भोजन दूषित हो जाता है।
9. किसी की गलती प्रतीत होने पर उसके बिना माँगे, स्वयं आगे होकर सदा के लिए उस गलती को भूल जाना वास्तविक क्षमा है।
(1) की हुई भूल को नहीं दोहराने से बड़ा कोई प्रायश्चित्त नहीं ।
व्याख्या- 'तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ।' साधक के जीवन में कभी-कभी तीन निर्बलताएँ घर कर जाती हैं- 1. मृत्यु का भय 2. लक्ष्य - प्राप्ति में