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परिशिष्ट-4]
237} उसके अपराध को सदा के लिए भूलकर पूर्ण उपशांत एवं कषाय रहित हो जाने से स्वयं की आराधना हो सकती है और दूसरे के अनुपशांत रहने पर उसकी ही विराधना होती है, दोनों की नहीं। अतः साधक के लिए यही जिनाज्ञा है कि वह स्वयं पूर्ण शांत हो जाए, क्योंकि ‘उवसमसारं खु सामण्णं' अर्थात् कषायों की उपशांति करना ही संयम का मुख्य लक्ष्य है। इससे ही वीतरागभाव की प्राप्ति होती है। प्रत्येक स्थिति में शान्त रहना, यही संयम धारण करने का एवं पालन करने का सार है। इस सूत्र में आगे कहा है-यदि श्रमण संघ में किसी से किसी प्रकार का कलह हो जाय तो जब तक परस्पर क्षमा न माँग लें, तब तक आहार पानी लेने नहीं जा सकते, शौच नहीं जा सकते, स्वाध्याय भी नहीं कर सकते । क्षमा के लिए कितना कठोर अनुशासन है। क्षमा करने के बाद भी यदि सामने वाले की भूल स्मरण में आ जाती है, तो समझना चाहिए 'क्षमा' प्रदान की ही नहीं। दूसरों के दोषों का स्मरण करना ‘अक्षमा' है। यह अक्षमा भी क्रोध का ही पर्यायवाची नाम है। अंतर में द्वेष रहे बिना दूसरों की भूलों का स्मरण भी नहीं हो सकता और जहाँ द्वेष है, वहाँ क्षमा नहीं हो सकती। अपने हृदय को निर्वैर बना लेना ही क्षमापना का मुख्य उद्देश्य है। अतः यहाँ कहा गया है कि किसी की गलती प्रतीत होने पर, उसके बिना माँगे, स्वयं आगे होकर सदा के लिए उस गलती को भूल जाना वास्तविक क्षमा है । इस विषय में उत्तराध्ययन सूत्र का 29वाँ अध्ययन सुन्दर विवेचन प्रस्तुत करता है-खमावणयाए णं पल्हायणभावं जणयइ, पल्हायणभावमुवगए य सव्व-पाण-भूय-जीव-सत्तेसु मित्तीभावमुप्पाएइ। मित्तीभावमुवगए यावि जीवे भावविसोहिं काउण निब्भए भवइ । अर्थात् किसी के द्वारा अपराध हो जाने पर प्रतिकार-सामर्थ्य होते हुए भी उसकी उपेक्षा कर देना क्षमा है । क्षमापना से चित्त में परम प्रसन्नता उत्पन्न होती है। वह सभी प्राणियों के साथ मैत्री-भाव संपादन कर लेता है। इससे राग-द्वेष का क्षय होकर भाव-विशुद्धि होती है और भाव विशुद्धि से व्यक्ति निर्भय हो
जाता है। प्रश्न 218. अन्तर बताइये-1. पगामसिज्जाए एवं निगामसिज्जाए में, 2. चरण सत्तरी एवं करणसत्तरी
में, 3.कायोत्सर्ग एवं कायक्लेश में, 4. श्रद्धा,प्रतीति एवं रुचि में, 5. संकल्प एवं
विकल्प में, 6. अकाले कओ सज्झाओ एवं असज्झाए सज्झाइयं में। उत्तर 1. पगामसिज्जाए एवं निगामसिज्जाए में अन्तर-‘पगामसिज्जाए' का संस्कृत रूप
'प्रकामशय्या' होता है। शय्या शब्द शयन वाचक है और प्रकाम अत्यन्त का सूचक है। अतः