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[आवश्यक सूत्र रस नहीं, स्पर्श नहीं, अरूपी एवं शाश्वत है। यदि हमारी आत्मा वर्ण, गंध, रस रहित है तो मैं बाहरी वर्ण, गंध, रस, स्पर्श के पीछे राग-द्वेष करके क्यों अपनी आत्मा का नुकसान करता हूँ? इनके पीछे आर्तध्यान, रौद्रध्यान करके अपनी आत्मा का अहित करता हूँ। ऐसा कोई क्षण नहीं, जिस वक्त इस जीव ने किसी वस्तु या व्यक्ति के पीछे राग-द्वेष न किया हो । पुद्गलों की साता भी धर्म नहीं है। पुद्गलों की शांति और मन की साता, यह आत्मा की साता से अलग है। पुद्गलास्तिकाय यह जीवों का मृत कलेवर है। इन पुद्गलों के पीछे भटकना, अपने लक्ष्य से भटकना है । बस इन्हीं तर्क अगोचर तत्त्वों पर, धर्मास्तिकाय आदि पर श्रद्धा करने के अर्थ से ही यहाँ ‘सद्दहामि' शब्द प्रयुक्त हुआ है। श्रद्धा जीवन-निर्माण का मूल है। बिना श्रद्धा का ज्ञान पंगु के सदृश हो जाता है। उत्तराध्ययन के अध्ययन 3 में बताया- 'सद्धा परम दुल्लहा' किसी भी साधन की प्राप्ति इतनी दुर्लभ नहीं, जितनी श्रद्धा की प्राप्ति दुर्लभ है। यहाँ तर्क अगोचर, धर्मास्तिकाय आदि तत्त्वों पर श्रद्धा करने रूप से श्रद्धा' शब्द प्रयुक्त हुआ है। प्रतीति-'पत्तियामि' प्रतीति करता हूँ। युक्ति से समझने योग्य पुण्य-पापादि पर प्रतीति करता हूँ। व्याख्याता के साथ तर्क-वितर्क करके यक्तियों द्वारा पुण्य-पाप आदि को समझकर विश्वास करना प्रतीति है। धर्मास्तिकाय आदि तत्त्व दृष्टिगोचर नहीं होते। लेकिन वीतराग वाणी तीनों काल में सत्य-तथ्य यथार्थ है। अतः 'तमेव सच्चं' का आलम्बन लेकर उस पर श्रद्धा करनी होती है, देखने में नहीं आती, अतः विश्वास नहीं होता, लेकिन भगवान की वाणी है, ऐसा सोचकर 'श्रद्धा' अवश्य की जाती है। यहाँ पत्तियामि' में तर्क अगोचर तत्त्व न होकर युक्ति से समझने योग्य तत्त्वों की बात कही गयी है। समझने के बाद विश्वास होता है, श्रद्धा नहीं। पहले श्रद्धा करता हूँ तत्पश्चात् ‘पत्तियामि' के द्वारा विश्वास करता हूँ अथवा उन तत्त्वों पर प्रीति करता हूँ। रुचि-रोएमि' रुचि करता हूँ। व्याख्याता द्वारा उपदिष्ट विषय में श्रद्धा करके उसके अनसार तप-चारित्र आदि सेवन करने की इच्छा करना । “मैं श्रद्धा करता हूँ।" श्रद्धा ऊपर मन से भी की जा सकती है, अतः कहता है मैं धर्म की प्रीति करता हूँ। प्रीति होते हुए भी कभी विशेष स्थिति में रुचि नहीं रहती। अतः साधक कहता है- 'मैं धर्म के प्रति सदाकाल रुचि रखता हूँ' 'सद्दहामि' में जीव श्रद्धा करता है। पत्तियामि' में विश्वास करता है और 'रोएमि' में पूर्व में जो श्रद्धा हुई थी, रुचि के द्वारा उस पर आचरण की इच्छा करता है, ऐसा प्रतीत होता है। 5. संकल्प एवं विकल्प में भेद (मनगुप्ति विषयक, उत्तराध्ययन 32.107)-संकल्प एवं विकल्प दोनों विचारों से संबंधित हैं । संकल्प में तो मनोज्ञ वस्तु के संयोग की इच्छा करता है।