Book Title: Aavashyak Sutra
Author(s): Hastimalji Aacharya
Publisher: Samyaggyan Pracharak Mandal

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Page 282
________________ {246 [ आवश्यक सूत्र श्रुतस्कन्धान्तर्गत 16वीं गाथा में भगवान महावीर ने साधु के माहन, श्रमण और भिक्षु निर्ग्रन्थ इस प्रकार 4 सुप्रसिद्ध नामों का वर्णन किया है। साधक के प्रश्न करने पर भगवान् ने उन शब्दों की विभिन्न रूप से अत्यन्त सुन्दर भावप्रधान व्याख्या की है। "जो साधक शरीर आदि में आसक्ति नहीं रखता है, किसी प्रकार की सांसारिक कामना नहीं करता है, किसी प्राणी की हिंसा नहीं करता है, झूठ नहीं बोलता है, मैथुन और परिग्रह के विकार से भी रहित है, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेष आदि जितने भी कर्मादान और आत्मा के पतन के हेतु हैं, सबसे निवृत्त रहता है, इसी प्रकार जो इन्द्रियों का विजेता है, संयमी है, मोक्षमार्ग का सफल यात्री है, शरीर के मोह-ममत्व से रहित है, वह श्रमण कहलाता है। (5) अवग्रह - जहाँ गुरुदेव विराजमान होते हैं, वहाँ गुरुदेव के चारों ओर, चारों दिशाओं में आत्म-प्रमाण अर्थात् शरीर प्रमाण साढ़े तीन हाथ का क्षेत्रावग्रह होता है। इस अवग्रह में गुरुदेव की आज्ञा लिए बिना प्रवेश करना निषिद्ध है। गुरुदेव की गौरव-मर्यादा के लिए शिष्य को गुरुदेव से साढ़े तीन हाथ दूर अवग्रह से बाहर खड़ा रहना चाहिए। यदि कभी वन्दना एवं वाचना आदि आवश्यक कार्य के लिए गुरुदेव के समीप तक जाना हो तो प्रथम आज्ञा लेकर पुनः अवग्रह में प्रवेश करना चाहिये । अवग्रह की व्याख्या करते हुए आचार्य हरिभद्र आवश्यक वृत्ति में लिखते हैं- “चतुर्दिशमिहाचार्यस्य आत्म-प्रमाणं क्षेत्रमवग्रहः तमनुज्ञां विहाय प्रवेष्टुं न कल्पते” प्रवचनसारोद्धार के वन्दनक द्वार में आचार्य नेमिचन्द्र भी यही कहते हैंआयप्यमाणमित्तो, चउदिसिं होड़ उग्गहो गुरुणो ।। अणणुन्नायस्स सया न कप्पड़ तत्थ पविसेउं ॥ — प्रवचनसारोद्धार की वृत्ति में अवग्रह के छः भेद कहे गये हैं-नामावग्रह नाम का ग्रहण, स्थापनावग्रह स्थापना के रूप में किसी वस्तु का अवग्रह कर लेना, द्रव्यावग्रह - वस्त्र, पात्र आदि किसी वस्तु विशेष का ग्रहण, क्षेत्रावग्रह - अपने आस-पास के क्षेत्र विशेष एवं स्थान का ग्रहण, कालावग्रह-वर्षाकाल में चार मास का अवग्रह और शेष काल में एक मास आदि का, भावावग्रह-ज्ञानादि प्रशस्त और क्रोधादि अप्रशस्त भाव का ग्रहण । वृत्तिकार ने वन्दन प्रसंग में आये अवग्रह के लिए क्षेत्रावग्रह और प्रशस्त भावावग्रह माना है। भगवती सूत्र आदि आगमों में देवेन्द्रावग्रह, राजावग्रह, गृहपति अवग्रह, सागारी का अवग्रह और साधर्मिक का अवग्रह । इ प्रकार जो आज्ञा ग्रहण करने रूप पाँच अवग्रह कहे गये हैं, वे प्रस्तुत प्रसंग में ग्राह्य नहीं हैं। ( 6 ) निर्ग्रन्थ प्रवचन - मूल शब्द है - निग्गंथं पावयणं । 'पावयणं' विशेष्य है और 'निग्गंथं' -

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