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[आवश्यक सूत्र धर्म-साधना का रंग स्वस्थ एवं सबल शरीर होने पर ही जमता है। यापनीय शब्द की यही ध्वनि है, यदि कोई सुन और समझ सके तो? यात्रा के समान ‘यापनीय' शब्द भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। यापनीय का अर्थ है- मन और इन्द्रिय आदि पर अधिकार रखना । अर्थात् उनको अपने वश मेंनियंत्रण में रखना । मन और इन्द्रियों का अनुपशान्त रहना, अनियन्त्रित रहना, अकुशलता है, अयापनीयता है और इनका उपशान्त हो जाना नियन्त्रित हो जाना ही कुशलता है, यापनीयता है। हिन्दी टीकाकार- पं. सुखलाल जी ने 'जवणिज्जं च भे' की व्याख्या करते हुए लिखा है कि 'आपका शरीर, मन तथा इन्द्रियाँ पीडा से रहित हैं।' आचार्य हरिभद्र ने भी इस संबंध में कहा है-'यापनीयं चेन्द्रिय-नोइन्द्रियोपशमादिना अकारेणं भवतां शरीरमिति गम्यते।' यहाँ इन्द्रिय से इन्द्रिय और नोइन्द्रिय से मन समझा गया है और ऊपर के अर्थ की कल्पना की गई है। परन्तु भगवती सूत्र में यापनीय का निरूपण करते हुए कहा है कि-यापनीय दो प्रकार के हैंइन्द्रिययापनीय और नोइन्द्रिययापनीय । पाँचों इन्द्रिय का निरुपहत रूप से अपने वश में होना, इन्द्रिय यापनीयता है और क्रोधादि कषायों का उच्छिन्न होना, उदय न होना , उपशान्त हो जाना, नोइन्द्रिय यापनीयता है। "जवणिज्जे दुविहे पण्णत्ते तंजहा ! इन्द्रियजवणिज्जे य नोइन्द्रिय जवणिज्जे य” आचार्य अभयदेव भगवतीसूत्र के उपर्युक्त पाठ का विवेचन करते हुए लिखते हैं-यापनीयं = मोक्षाध्वनि गच्छतां प्रयोजक-इन्द्रियादिवश्यतारूपो धर्मः । भगवती सूत्र में नोइन्द्रिय से मन नहीं, किन्तु कषाय का ग्रहण किया गया है, कषाय चूंकि इन्द्रिय सहचरित होते हैं, अतः नो इन्द्रिय कहे जाते हैं। आचार्य जिनदास भी भगवती सूत्र का ही अनुसरण करते हैं-“इन्द्रिय जवणिज्जं निरुवहताणि वसे य मे वटुंति इंदियाणि, नो खलु कज्जस्स बाधाए वटुंति इत्यर्थः । एवं नोइन्द्रियजवणिज्जं कोधादिए वि णो मे बाहेंति"
___ -आवश्यक चूर्णि। उपर्युक्त विचारों के अनुसार यापनीय शब्द का भावार्थ यह है कि 'भगवन् ! आपकी इन्द्रिय विजय की साधना ठीक-ठीक चल रही है? इन्द्रियाँ आपकी धर्म साधना में बाधक तो नहीं होती? अनुकूल ही रहती हैं न? और नोइन्द्रिय विजय भी ठीक-ठीक चल रही है न? क्रोधादि कषाय शान्त हैं न? आपकी धर्मसाधना में कभी बाधा तो नहीं पहुँचाते?